________________ क्योंकि आवश्यकता के समय उसी पदार्थ की प्राप्ति हो जाना बहुत बड़ा सुख है। (8) शुभ भोग-अनिन्दित (प्रशस्त) भोग शुभ भोग कहलाते हैं। ऐसे शुभ भोगों की प्राप्ति और उन काम भोगादि विषयों में भोग क्रिया का होना भी मुख है। यह सातावेदनीय के उदय से होता है इस लिए मुख माना गया है। (6) निष्क्रमण-निष्क्रमण नाम दीक्षा (संयम) का है। अविरति रूप जंजाल से निकल कर भगवती दीक्षा को अङ्गीकार करना ही वास्तविक मुख है, क्योंकि सांसारिक झंझटों में फंसा हुआ पाणी स्वात्म कल्याणार्थ धर्म ध्यान के लिए पूरा समय नहीं निकाल सकता तथा पूणे श्रात्मशान्ति भी प्राप्त नहीं कर सकता। अतः संयम स्वीकार करना ही वास्तविक सुख है क्योंकि दूसरे सुख तो कभी किसी सामग्री आदि की प्रतिकूलता के कारण दुःख रूप भी हो सकते हैं किन्तु संयम तो सदा सुखकारी ही है। अतः यह सच्चा सुख है। कहा भी है- . नैवास्ति राजराज्यस्य, तत्सुखं नैव देवराजस्य / यत्सुखमिहव साधोर्लोकव्यापाररहितस्य / / '. अर्थात्-इन्द्र और नरेन्द्र को जो सुख नहीं है वह सांसारिक झंझटों से रहित निर्ग्रन्थ साधु को है। एक वर्ष के दीक्षित साधु को जो सुख है वह सुख अनुत्तर विमानवासी देवताओं को भी नहीं है। संयम के अतिरिक्त दूसरे आठों सुख केवल दुःख के प्रतीकार मात्र हैं और वे सुख अभिमान के उत्पन्न करने वाले होने से वास्तविक सुख नहीं हैं। वास्तविक सच्चा सुख तो संयम ही है। (10) अनावाध सुख- श्राबाधा अर्थात् जन्म, जरा (बुढ़ापा), मरण, भूख,प्यास आदि जहाँ न हो उसे अनाबाध सुख कहते हैं। ऐसा सुख मोक्षसुख है / यही सुख वास्तविक एवं सर्वोत्तम मुख