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________________ श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह 447 ७६४-मन के दस दोष मन के जिन संकल्प विकल्पों से सामायिक दूषित हो जाती है वे मन के दोष कहलाते हैंअविवेक जसोकित्ती लाभत्थी गव्य भय नियाणस्थी। संसय रोस अविणउ अबहुमाणए दोसा भणियव्वा / (1) अविवेक- सामायिक के सम्बन्ध में विवेक न रखना, कार्य के प्रोचित्य अनौचित्य अथवा समय असमय का ध्यान न रखना अविवेक नाम का दोष है। (2) यश-कीर्ति--सामायिक करने से मुझे यशप्राप्त होगा अथवा मेरी प्रतिष्ठा होगी,समाज में मेरा आदर होगा,लोग मुझे धर्मात्मा कहेंगे आदि विचार से सामायिक करना यश कीर्ति नाम का दूसरा दोष है। (3) लाभार्थ-धन आदि के लाभ की इच्छा से सामायिक करना अथवा इस विचार से सामायिक करना कि सामायिक करने से व्यापार में अच्छा लाभ होता है लाभार्थ नाम का दोष है। (4) गर्व-सामायिक के सम्बन्ध में यह अभिमान करना कि मैं बहुत सामायिक करने वाला हूँ। मेरी तरह या मेरे बराबर कौन सामायिक कर सकता है अथवा मैं कुलीन हूँ आदि गर्व करना गर्व नाम का दोष है। (5) भय-किसी प्रकार के भय के कारण जैसे-राज्य,पंच या लेनदार आदि से बचने के लिए सामायिक करके बैठ जाना भय नाम का दोष है। (6) निदान-सामायिक का कोई भौतिक फल चाहना निदान नाम कादोष है। जैसे यह संकल्प करके सामायिक करना कि मुझे अमुक पदार्थ की प्राप्ति हो या अमुक सुख मिले अथवा सामायिक करके यह चाहना कि यह मैंने जो सामायिक की है उसके फल
SR No.010510
Book TitleJain Siddhanta Bol Sangraha Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhairodan Sethiya
PublisherJain Parmarthik Sanstha Bikaner
Publication Year1942
Total Pages490
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_related_other_literature
File Size17 MB
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