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________________ 442 भी सेठिया जैन प्रथमानी wearnirmirror है क्योंकि यह क्रिया रूप है। कर्म पुद्गलों के समान द्रव्य रूप नहीं है। (4) प्रयोग कर्म-वीर्यान्तराय कर्म के क्षय या क्षयोपशम से उत्पन्न होने वाली वीर्यशक्ति विशेष प्रयोग कर्म कहलाती है,अथवा प्रकृष्ट (उत्कृष्ट) योग को प्रयोगकहते हैं। इसके पन्द्रह भेद हैं। यथामन के चार- सत्य मन, असत्य मन, सत्यमृषा मन, असत्यामृषा मन / वचन के चार-सत्य वचन, असत्य वचन, सत्यमृषा वचन और असत्यामृषा वचन। काया के सात भेद-औदारिक,औदारिक मिश्र, वैक्रिय,वैक्रिय मिश्र, आहारक, आहारक मिश्र और कार्मण। ___ जिस प्रकार तपा हुआ तवा अपने ऊपर गिरने वाली जल की बँदों को सब प्रदेशों से एक साथ खींच लेता है उसी प्रकार आत्मा इन पन्द्रह योगों के सामर्थ्य से अपने सभी प्रदेशों द्वारा कर्मदलिकों को खींचता है।आत्मा द्वारा इस प्रकार कर्मपुद्गलों को ग्रहण करना और उन्हें कार्मण शरीर रूप में परिणत करनाप्रयोग कर्म है। (5) समुदान कर्म-सामान्य रूप से बंधे हुए पाठ कर्मों का देशघाती और सर्वघाती रूप से तथा स्पृष्ट,निधत्त और निकाचित आदि रूप से विभाग करना समुदान कर्म है। (6) ईर्यापथिक कर्म-गमनागमन आदि तथा शरीर की हलन चलन आदि क्रिया ईर्या कहलाती है। इस क्रिया से लगने वाला कर्म ईर्यापथिक कर्म कहलाता है। उपशान्त मोह और तीण मोह तक अर्थात् बारहवें गुणस्थान तक जीव को गति स्थिति आदि के निमित्त से ईर्यापथिकी क्रिया लगती है और तेरहवें गुणस्थानवर्ती (सयोगी केवली)को शरीर के सूक्ष्म हलन चलन से ईर्यापथिकी क्रिया लगती है किन्तु उस से लगने वाले कर्मपुद्गलों की स्थिति दो समय की होती है। प्रथम समय में वे बँधते हैं, दूसरे समय में वेदे जाते हैं और तीसरे समय में निर्जीर्ण हो जाते हैं अर्थात् झड़ जाते हैं। तेरहवें गुणस्थानवी केवली तीसरे
SR No.010510
Book TitleJain Siddhanta Bol Sangraha Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhairodan Sethiya
PublisherJain Parmarthik Sanstha Bikaner
Publication Year1942
Total Pages490
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_related_other_literature
File Size17 MB
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