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________________ 424 भी सेठिया जैन ग्रन्थमाला ' के कारण इसके गहन (गूढ) भाव सूक्ष्म बुद्धि से ही जाने जा सकते हैं। (ठाणांग, सूत्र 716) 747- दस प्रकार के नारकी समय के व्यवधान (अन्तर) और अव्यवधान आदि की अपेक्षा नारकी जीवों के दस भेद कहे गये हैं। वे इस प्रकार हैं(१) अनन्तरोपपन्नक- अन्तर व्यवधान को कहते हैं। जिन नारकी जीवों को उत्पन्न हुए अभी एक समय भी नहीं बीता है अर्थात् जिनकी उत्पत्ति में अभी एक समय का भी अन्तर नहीं पड़ा है वे अनन्तरोपपत्रक नारकी कहलाते हैं। (२)परम्परोपपनक-जिन नारकी जीवों को उत्पन्न हुए दो तीन आदि समय बीत गये हैं। उनको परम्परोपपत्रक नारकी कहते हैं। ये दोनों भेद काल की अपेक्षा से हैं। (3) अनन्तरावगाढ- विवक्षित प्रदेश (स्थान) की अपेक्षा से अनन्तर अर्थात् अव्यवहित प्रदेशों के अन्दर उत्पन्न होने वाले अथवा प्रथम समय में क्षेत्र का अवगाहन करने वाले नारक जीव अनन्तरावगाढ कहलाते हैं। (4) परम्परावगाढ-विवक्षित प्रदेश की अपेक्षा व्यवधान से पैदा होने वाले अथवा दो तीन समय के पश्चात् उत्पन्न होने वाले नारकी परम्परावगाढ कहलाते हैं। ये दोनों भेद क्षेत्र की अपेक्षा से समझने चाहिएं। (5) अनन्तराहारक-- अनन्तर (अव्यवहित) अर्थात् व्यवधान रहित जीव प्रदेशों से आक्रान्त अथवा जीव प्रदेशों का स्पर्श करने वाले पदलों का आहार करने वाले नारकीजीव अनन्तराहारक कहलाते हैं। अथवा उत्पत्ति के प्रथम समय में आहार ग्रहण करने वाले जीवों को अनन्तराहारक कहते हैं। (६)परम्पराहारक-जो नारकी जीव अपने क्षेत्र में भाए हुए
SR No.010510
Book TitleJain Siddhanta Bol Sangraha Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhairodan Sethiya
PublisherJain Parmarthik Sanstha Bikaner
Publication Year1942
Total Pages490
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_related_other_literature
File Size17 MB
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