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श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह
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(७) पृथक्त्व- भेद अर्थात् द्विवचन और बहुवचन । जैसेधम्मत्यिकाये धम्मत्यिकायदेसे धम्मस्थिकायपदेसा' यहाँ पर धम्मत्यिकायपदेसा' यह बहुवचन उन्हें असंख्यात बताने के लिए दिया है। (८) संयुथ-इकडे किए हुए या समस्त पदों को संयुथ कहते हैं। जैसे- 'सम्यग्दर्शनशुद्ध' यहाँपर सम्यग्दर्शन के द्वारा शुद्ध, उसके लिए शुद्ध, सम्यग्दर्शन से शुद्ध इत्यादि अनेक अर्थ मिले हुए हैं। (६) संक्रामित-जहाँ विभक्ति या वचन को बदल कर वाक्य का अर्थ किया जाता है। जैसे- साहूणं वन्दणेणं नासति पावं असंकिया भावा' । यहाँ 'साधूनाम्' इस षष्ठी को 'साधुभ्यः' पञ्चमी में बदल कर फिर अर्थ किया जाता है 'साधुओं की वन्दना से पाप नष्ट होता है और साधुओं से भाव अशंकित होते हैं।' अथवा 'अच्छन्दा जे न भुञ्जन्ति, न से चाइत्ति वुच्चइ' यहाँ 'वह त्यागी नहीं होता' इस एक वचन को बदल कर बहुवचन किया जाता है- 'वे त्यागी नहीं कहे जाते।' (१०) भिन्न- क्रम और काल आदि के भेद से भिन्न अर्थात विसदृश । जैसे- तिविहं तिविहेणं, मणेणं वायाए कारणं ।' यहाँ पर तीन करण और तीन योग से त्याग होता है। मन, बचन और काया रूप तीन योगों का करना, कराना और अनुमोदन रूप तीन करणों के साथ क्रम रखने से मन से करना, वचन से कराना और काया से अनुमोदन करना यह अर्थ हो जायगा। इस लिए यह क्रम छोड़ कर तीनों करणों का सम्बन्ध प्रत्येक योग से होता है अर्थात् मन से करना,कराना और अनुमोदन करना। इसी प्रकार वचन से सथाबाया से करना, कराना और अनुमोदन रूप अर्थ किया जाता है। इसी को क्रम भिन्न कहते हैं।
इसी प्रकार काल भिन्न होता है। जैसे-जम्बूद्वीपपण्णत्ति अदि