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श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह
' (१)निःशंकित (२) निःकांक्षित (३)निर्विचिकित्स (४) अमूढदृष्टि (५) उपवृन्हण (६) स्थिरीकरण (७) वात्सल्य
और (८) प्रभावना। (१) निःशंकित- वीतराग सर्वज्ञ के वचनों में संदेह न करना अथवा शंका, भय और शोक से रहित होना अर्थात् सम्यग्दर्शन पर दृढ व्यक्ति को इस लोक और परलोक का भय नहीं होता, क्योंकि वह समझता है कि सुख दुःख तो अपने ही किए हुए पाप, पुण्य के फल हैं । जीव जैसा कर्म करता है वैसा ही फल प्राप्त होता है । आत्मा अजर और अमर है । वह कर्म और शरीर से अलग है। इसी तरह सम्यक्त्वी को वेदनाभय भी नहीं होता, क्योंकि वेदना भी अपने ही कर्मों का फल है, वेदना शरीर का धर्म है। आत्मा को कोई वेदना नहीं होती। शरीर से आत्मा को अलग समझ लेने पर किसी तरह की वेदना नहीं होती। आत्मा को अजर अमर समझने से उसे मरण-भय नहीं होता। आत्मा अनन्त गुण सम्पन्न है और उन गुणों को कोई चुरा नहीं सकता । यह समझने से उसे चोर भय नहीं होता। जिनधर्म सब को शरणभूत है, उसे प्राप्त करने के बाद जन्म मरण के दुःखों से अवश्य छुटकारा मिल जाता है, यह समझने से उसे अशरण भय नहीं होता । अपनी आत्मा को परमानन्दमयी समझने से अकस्माद्भय नहीं होता । आत्मा को ज्ञानमय समझकर वह सदा निर्भय रहता है। (२) निःकांक्षित- सम्यक्त्वी जीव अपने धर्म में दृढ़ रह कर परदर्शन की आकाँक्षा न करे । अथवा सुख और दुःख को कर्मों का फल समझकर सुख की आकांक्षा न करे तथा दुःख से द्वेष न करे। भावी सुरव,धन, धान्य आदि की चाह न करे। (३) निर्विचिकित्सा-- धर्मफल की प्राप्ति के विषय में सन्देह