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श्री सेठिया जैन मन्थमाला
६६०- अस्वाध्याय (आन्तरिक्ष) दस .
वाचना, पृच्छना, परिवर्तना, धर्मकथा और अनुपेक्षा रूप पाँच प्रकार का स्वाध्याय जिस काल में नहीं किया जा सकता हो उसे अस्वाध्याय कहते हैं उसमें आन्तरिक्ष अर्थात् आकाश सम्बन्धी अस्वाध्याय के दस भेद हैं(१) उक्कावात (उल्कापात)-पूंछ वाले तारे आदि के टूटने को उल्कापात कहते हैं। (२)दिसिदाघ (दिग्दाह)-दिशाओं में दाह का होना । इसका यह अभिप्राय है कि किसी एक दिशा में महानगर के दाह के 'समान प्रकाश का दिखाई देना । जिसमें नीचे अन्धकार और 'ऊपर प्रकाश दिखाई देता है। (३) गजिते (गर्जित)- आकाश में गर्जना का होना। भगवती सूत्र शतक ३ उद्देशा ७ में 'गहगजिन' यह पाठ है। उसका अर्थ है ग्रहों की गति के कारण आकाश में होने वाली कड़कड़ाहट या गर्जना। (४) विज्जुते (विद्युत्)- विजली का चमकना । (५) निग्घाते (निर्घात)- मेघों से आच्छादित या अनाच्छादित आकाश के अन्दर व्यन्तर देवता कृत महान् गर्जने की ध्वनि होना निर्यात कहलाता है। (६) जूयते (यूपक)- सन्ध्या की प्रभा और चन्द्र की प्रभा का जिस काल में सम्मिश्रण होता है वह यूपक कहलाता है। इसका यह अभिप्राय है कि चन्द्र प्रभा से आहत सन्ध्या मालूम नहीं पड़ती। शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा आदि तीन तिथियों में अर्थात् एकम, दूज, और तीज को सन्ध्या का भान नहीं होता। सन्ध्या का यथावत् ज्ञान न होने के कारण इन तीन दिनों के अन्दर पादोषिक काल का ग्रहण नहीं किया जा सकता। अतः इन