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भी जैन सिद्धान्त बोल संग्रह
रखावली तप की विधि इस प्रकार है--
सब से प्रथम एक उपवास, एक बेला और एक तेला करके फिर एक साथ आठ बेले करे, फिर उपवास, बेला, तेला आदि क्रम से करते हुए १६ उपवास तक करे । तत्पश्चात् ३४ बेले एक साथ करे। जैसे रत्नावली हार मध्य में स्थूल (मोटा) होता है उसी प्रकार इस रत्नावली तप में भी मध्यभाग में ३४ बेले एक साथ करने से स्थूल आकार बन जाता है। ३४ बेले करने के बाद १६ उपवास करे, १५ उपवास करे इस तरह क्रमशः घटाते हुए एक उपवास तक करे । तत्पश्चात् आठ बेले एक साथ करे, फिर एक तेला, बेला और उपवास करे। इसकी स्थापना का क्रम नक्शे में बताया गया है । ___ यह एक परिपाटी होती है। इसके पारणे के दिन जैसा आहार मिले वैसा लेवे, अर्थात् पारणे के दिन सब विगय (दूध, दही
घी आदि) भी लिए जा सकते हैं। ___ दूसरी परिपाटी में पारणे के दिन कोई भी विगय नहीं लिये
जा सकते । तीसरी परिपाटी में निर्लेप (जिसका लेप नलगे) पदार्थ ही पारणे में लिए जा सकते हैं। चौथी परिपाटी में पारणे के दिन आयंबिल (किसी एक प्रकार कापूंजा हुआ धान्य वगैरह पानी में भिगो कर खाना आयंबिल कहलाता है) किया जाता है।
इस प्रकार काली आर्या को रत्नावली तप करने में पाँच वर्ष दो महीने और अहाईस दिन लगे। सूत्रानुसार रत्नावली तप को पूर्ण करके अनेकविध तपस्या करती हुई वह विचरने लगी। प्रधान तप से उसका शरीर अति दुर्बल दिखाई देने लग गया था किन्तु तपोबल से वह अत्यन्त शोभित होने लगी। एक समय अंर्द्ध रात्रि व्यतीत होने पर काली आर्या को इस प्रकार का विचार उत्पन्न हुआ कि जब तक मेरे शरीर में शक्ति है, उत्थान, कर्म, बल,