________________
२८८
भी सेठिया जैन प्रत्रमाला
को, दूसरे पुट में आई हुई भिक्षा कौओं को, तीसरे पुट में आई हुई भिक्षा मछली आदि जलचर जीवों को डाल देता था और चौथे पुट में आई हुई भिक्षा आप स्वयं राग द्वेष रहित यानी समभाव पूर्वक खाता था। इस प्रकार बारह वर्षे तक अज्ञान तप करके तथा मृत्यु के समय एक महीने का अनशन करके चमरचश्चा राजधानी के अन्दर चमरेन्द्र हुआ। वहाँ उत्पन्न हो कर उसने अवधिज्ञान से इधर उधर देखते हुए अपने ऊपर सौधर्म विमान में क्रीड़ा करते हुए सौधर्मेन्द्र को देखा और वह कुपित हो कर कहने लगा कि अपार्थिक का प्रार्थिक अर्थात् जिसकी कोई इच्छा नहीं करता ऐसे मरण की इच्छा करने वाला यह कौन है जो मेरे शिर पर इस प्रकार क्रीड़ा करता है ? मैं इस को इस प्रकार मेरा अपमान करने की सजा दूँगा । ऐसा कह कर हाथ में परिघ (एक प्रकार का शस्त्र) लेकर ऊपर जाने को तैयार हुआ । परन्तु चमरेन्द्र को विचार आया कि शक्रेन्द्र बहुत बलवान है, अतः यदि मैं हार गया तो फिर किसकी शरण में जाऊँगा। ऐसा सोच सुंसुमारपुर में एकरात्रिकी पडिमा में स्थित श्रमण भगवान् महावीर स्वामी को वन्दना नमस्कार कर उनकी शरण लेकर एक लाख योजन प्रमाण अपने शरीर को बना कर परिघ शस्त्र को चारों ओर घुमाता हुआ हाथ, पैरों को विशेष रूप से पटकता हुआ और भयङ्कर गर्जना करता हुआ शक्रेन्द्र की तरफ ऊपर को उछला। वहाँ जाकर एक पैर सौधर्म विमान की वेदिका में और दूसरा पैर सौधर्म सभा में रख कर परिघ से इन्द्रकील (इन्द्र के दरवाजे की कील यानि अर्गला- आगल) को तीन बार ताड़ित किया और शक्रेन्द्रको तुच्छ शब्दों से सम्बोधित करने लगा। शक्रेन्द्र ने भी अवधि ज्ञान से उपयोग लगा कर देखा और उसको जामा कि यह तो चमरेन्द्र