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भी जैन सिद्धान्त बोल संग्रह
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के मित्र देव को याद किया। याद करने पर देवता उसके सन्मुख उपस्थित हुआ और कहने लगा कि कहिए आपके लिए मैं क्या कार्य सम्पादित करूँ ? राजा ने कहा कि पाण्डवपनी द्रौपदी को यहाँ लाकर मेरे सुपुर्द करो। देव ने कहा कि द्रौपदी तोमहासती है, वह मन से भी परपुरुष की अभिलाषा नहीं करती परन्तु तुम्हारे आग्रह के कारण मैं उसे यहाँ ले आता हूँ। ऐसा कह कर वह देव हस्तिनागपुर आया और पहल की छत पर सोती हुई द्रौपदी को उठाकर धातकीरखण्ड में अपरकका नाम की नगरी में ले आया। वहाँ लाकर उसने पद्मनाभ राजा के सामने रख दी । पश्चात् वह देव अपने स्थान को वापिस चला गया। __ जब द्रौपदी की निद्रा (नींद) खुली तो पाण्डवों को वहाँ नदेख कर बहुत घबराई । तब पद्मनाभ राजा ने कहा कि हे भद्रे ! मत घबराओ । मैंने ही हस्तिनागपुर से तुम्हें यहाँ मंगवाया है। मैं धातकीखण्ड की अपरकडा का स्वामी पद्मनाभ नाम का राजा हूँ। मैं आपसे प्रार्थना करता हूँ कि आप मेरे साथ इन विपुल काम भोगों का भोग करती हुई सुख पूर्वक यहीं रहें। मैं प्रसका सेवक बन कर रहूँगा। पद्मनाभ राजा के उपरोक्त वचनों को द्रौपदी ने कोई
आदर नहीं दिया एवं स्वीकार नहीं किया। राजा ने सोचा कि यदि आज यह मेरी बात स्वीकार नहीं करती है तो भी कोई बात नहीं. क्योंकि यहाँ पर जम्बूद्वीपवासी पाण्डवों का आगमन तो असम्भव है। इसलिए आज नहीं तो कुछ दिनों बाद द्रौपदी को मेरी बात स्वीकार करनी ही पड़ेगी।
इधर प्रातः काल जब पाण्डव उठे तो उन्होंने महल में द्रौपदी को नहीं देखा । चारों तरफ खोज करने पर भी उनको द्रौपदी का कोई पता नहीं लगा। तब वे कृष्ण महाराज के पास आये और उनसे सारा वृत्तान्त निवेदन किया। इस बात को सुनकर