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भोजमसिदान्त बोल संग्रह
सामी के छत्रस्य अवस्था में तथा केवली अवस्था में देव, मनुष्य और तियेच कृत कई उपसर्ग हुए थे। यह एक आश्चर्यभूत बात है, क्योंकि ऐसी बात कभी नहीं हुई थी। तीयेडूर भगवानू तो सब मनुष्य, देव और तिर्यञ्चों के लिए सत्कार के पात्र होते हैं, उपसर्ग के पात्र नहीं। किन्तु अनन्त काल में कभी कभी ऐसी अच्छेरेभूत (आश्चर्यभूत) बातें हो जाया करती हैं। अतः यह अच्छेरा कहलाता है। (२) गर्भहरण- एक स्त्री की कुक्षि में समुत्पन्न जीव को अन्य "खी की कृति में रख देना गर्भहरण कहलाता है।
भगवान् महावीर स्वामी का जीव जब मरीचि (त्रिंदण्डी) के भव में था तब जातिमद करने के कारण उसने नीच गोत्र का बंध कर लिया था। अतः प्राणत कल्प (दसवें देवलोक) के पुष्पोत्तरविमान से चव कर आषाढ़ शुक्लाछट्ट के दिन ब्राह्मणकुण्ड ग्राम में ऋषभदत्त (सोमिल) ब्राह्मण की पनी देवानन्दा की कुक्षि में आकर उत्पन्न हुआ। बयासी दिन बीत जाने पर सौधर्मेन्द्र (प्रथम देवलोक का इन्द्र-शकेन्द्र) को अवधि ज्ञान से यह बात ज्ञात हुई । तब शक्रेन्द्र ने विचार किया किः सर्वलोक में उत्तम पुरुष तीर्थङ्कर भगवान् का जन्म अप्रशस्त कुल में नहीं होता और न कभी ऐसा आगे हुआ है। ऐसा विचार कर शक्रेन्द्र ने हरिणगमेषी देव को बुलाकर आज्ञा दी कि चरम तीर्थकर भगवान् महावीर स्वामी का जीव पूर्वोपार्जित कर्म के कारण अप्रशस्त (तुच्छ) कुल में उत्पन्न हो गया है। अतः तुम जाओ और देवानन्दा ब्राह्मणी के गर्भ से उस जीव का हरण कर क्षत्रियकुण्ड ग्राम के स्वामी प्रसिद्ध सिद्धार्थ राजा की पत्नी त्रिशला रानी के गर्भ में स्थापित कर दो। शक्रेन्द्र की आज्ञा स्वीकार कर हरिणगमेषी देव ने आश्विन कृष्णा त्रयोदशी को रात्रि
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