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भी जैन सिद्धान्त बोल संग्रह २६९ - है यानी अन्तिम अवस्था है। (ठाणांग, सूत्र ७७२ ) ६७६- संसार को समुद्र के साथ दस उपमा (१) लवण समुद्र में पानी बहुत है और उसका विस्तार भी बहुत है। इस संसार रूपी समुद्र में जन्म, जरा, मृत्यु से क्षोभित मोहरूपी पानी बहुत है और विचित्र प्रकार के इष्ट एवं अनिष्ट पदार्थों के संयोग नियोग आदि प्रसंग से वह मोह रूपी पानी बहुत विस्तृत है। ..... (२) लवण समुद्र में फेन और तरङ्गों से युक्त बड़ी बड़ी कल्लोलें उठती हैं जिन से भयङ्कर आवाज उठती है। संसार रूपी समुद्र में अपमान रूप फेन, दूसरे से अपमानित होना या पर की निन्दा करना रूप तरङ्गों से युक्त स्नेह रूपी वध, बन्धन
आदि महान् कल्लोलें उठती हैं और वध बन्धनादि से दुःखित प्राणी विलापादि करुणाजनक शब्द करते हैं। इससे संसार रूपी समुद्र अति क्षुब्ध (विचलित) हो रहा है। (३) लवण समुद्र में वायु बहुत है। संसार रूपी समुद्र में मिथ्यात्व रूप तथा घोर वेदना एवं परपराभव (दूसरे को नीचा दिखाना) रूप वायु बहुत है । मिथ्यात्व रूपी वायु से बहुत से जीव समकित से विचलित हो जाते हैं। (४) लवण समुद्र में कर्दम (कीचड़) बहुत है। संसार रूपी समुद्र में राग द्वेष रूपी कीचड़ बहुत है। (५) लवण समुद्र में बड़े बड़े पाषाण और बड़े बड़े पर्वत हैं। संसार रूप समुद्र में कठोर वचन रूपी पाषाण (पत्थर) और पाठ कर्म रूपी बड़े बड़े पर्वत हैं। इन पर्वत और पाषाणों से टक्कर खाकर जीव राग द्वेष रूपी कीचड़ में फंस जाते हैं। इस प्रकार कीचड़ और पाषाणों की बहुलता होने के कारण संसार रूपी समुद्र से तिरना महान् दुष्कर है।