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भी जैन सिद्धान्त बोल संपह
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न्तेवासी (शिष्य) कहते हैं। शिष्य भी धर्मशिक्षा की अपेक्षा 1 से अन्तेवासी पुत्र कहलाता है। (ठाणांग, सूत्र ७६२)
६७८-- अवस्था दस * कालकृत शरीर की दशा को अवस्था कहते हैं । यहाँ पर .. सौ वर्ष की आयु मान कर ये दस अवस्थाएं बतलाई गई हैं। * दस दस वर्ष की एक एक अवस्था मानी गई है। इससे अधिक
आयु वाले पुरुष की अथवा पूर्व कोटि की आयु वाले पुरुष के भी ये दस अवस्थाएं ही होती हैं, किन्तु उसमें दस वर्ष का परिमाण "नहीं माना जाता है, क्योंकि पूर्व कोटि की आयु वाले पुरुष
के सौ वर्षे तो कुमारावस्था में ही निकल जाते हैं। अत: उन की आयु का परिमाण भिन्न माना गया है किन्तु उनके भी आयु के परिमाण के दस विभागानुसार दस अवस्थाएं ही होती हैं। उनका स्वरूप इस प्रकार है-- (१) बाल अवस्था-- उत्पन्न होने से लेकर दस वर्ष तक का पाणी बाल कहलाता है । इसको सुख दुःखादि का अथवा सांसारिक दुःखों का विशेष ज्ञान नहीं होता । अतः यह बाल अवस्था कहलाती है। (२) क्रीड़ा- यह द्वितीय अवस्था क्रीडाप्रधान है अर्थात् इस अवस्था को प्राप्त कर प्राणी अनेक प्रकार की क्रीडा करता है किन्तु काम भोगादि विषयों की तरफ उसकी तीव्र बुद्धि नहीं होती। (३) मन्द अवस्था-विशिष्ट बल बुद्धि के कार्यों में असमर्थ किन्तु भोगोपभोग की अनुभूति जिस दशा में होती है उसे मन्द अवस्था कहते हैं। इसका स्वरूप इस प्रकार बतलाया गया है कि क्रमशः इस अवस्था को प्राप्त होकर पुरुष अपने घर में विद्यमान भोगोपभोग की सामग्री को भोगने में समर्थ होता है किन्तु नये भोगादि को उपार्जन करने में मन्द यानी
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