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श्री सेठिया जैन प्रस्थमाला
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(२) मिध्याकार- संयम का पालन करते हुए कोई विपरीत
आचरण हो गया हो तो उस पाप के लिए पश्चाताप करता हुआ साध कहता है 'मिच्छामि दुक्कड' अर्थात् मेरा पाप निष्फल हो। इसे मिथ्याकार कहते हैं। (३) तथाकार- सूत्रादि आगम के विषय में गुरु को कुछ पूछने पर जब 'गुरु उत्तर दें या व्याख्यान के समय तह त्ति' (जैसा आप कहते हैं वही ठीक है) कहना तथाकार है। (४) आवश्यिका- आवश्यक कार्य के लिए उपाश्रय से बाहर निकलते समय साधु को 'श्रावस्सिया' कहना चाहिए । अर्थात् मैं आवश्यक कार्य के लिए जाता हूँ। (५) नैषेधिकी - बाहर से वापिस आकर उपाश्रय में प्रवेश करते समय 'निसीहिया' कहना चाहिए । अथोत् अब मुझे वाहर जाने का कोई काम नहीं है। इस प्रकार व्यापारान्तर (दूसरे कार्य) का निषेध करना। (६) आपृच्छना- किसी कार्य में प्रवृत्ति करने से पहले गुरु से 'क्या में यह करूँ' इस प्रकार पूछना। (७) पतिपृच्छा- गुरु ने पहले जिस काम का निषेध कर दिया है उसी कार्य में आवश्यकतानुसार फिर प्रवृत्त होना हो तो गुरु से पूछना-- भगवन् ! आपने पहले इस कार्य के.लिए मना किया था, लेकिन यह जरूरी है। आप फरमावे तो करूँ ? (८) छन्दना- पहले लाए हुए आहार के लिए साधु को आमन्त्रण देना । जैसे- अगर आपके उपयोग में आ सके तो यह आहार ग्रहण कीजिए। (8) निमन्त्रणा- आहार लाने के लिए साधु को निमन्त्रण देना या पूछना । जैसे क्या आप के लिए बाहार आदि लाऊँ ? (१०) उपसंपद्-'ज्ञानादि प्राप्त करने के लिए अपना गच्छ