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श्री सेठिया जैन मन्यमाला
' (२४) कृन्तन्ती-कातती हुई। भिक्षा देकर हाथ धोने के कारण। (२५) प्रमृनती- हाथों से रूई को पोली करती हुई। भिक्षा देकर हाथ धोने के कारण। (२६) षट्कायव्यग्रहस्ता- जिसके हाथ पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, वनस्पति या त्रस जीवों से रुंधे हुए हों। (२७) निक्षिपन्ती- साधु के लिए उन जीवों को भूमि पर रख कर आहार देती हुई। (२८) अवगाहमाना-- उन जीवों को पैरों से हटाती हुई। (२६) संघट्टयन्ती-शरीर के दूसरे असे उन को छूती हुई। (३०) प्रारममाणा-षटकाय की विराधना करती हुई। कुदाली
आदि से जमीन खोदनापृथ्वीकाय का प्रारम्भ है। स्नान करना, कपड़े धोना, वृक्ष, बेल आदि सींचना अप्काय का आरम्भ है। आग में फंक मारना अमि और वायुकाय का प्रारम्भ है। सचित्त वायु से भरे हुए गोले आदि को इधर उधर फैंकने से भी वायुकायका प्रारम्भ होता है। वनस्पति (लीलोती) काटना या धूप में सुखाना, मूंग आदि धान बीनना वनस्पति काय का प्रारम्भ है। त्रस जीवों की विराधना त्रसकाय का प्रारम्भ है। इन में से कोई भी प्रारम्भ करते हुए से भिक्षा लेने में दोष है। (३१) लिप्तहस्ता-जिसके हाथदही आदि चिकनी वस्तु से भरे हों। (३२) लिसमात्रा- जिसका बर्तन चिकनी वस्तु से लिप्त हो। इन दोनों में चिकनापन रहने से ऊपर के जीवों की हिंसा होने की सम्भावना है। (३३) उद्वर्तयन्ती- किसी बड़े मटके या बर्तन को उलट कर उसमें से कुछ देती हुई। (३४) साधारणदात्री- बहुतों के अधिकार की वस्तु देती हुई। (३५) चौरितदात्री- चुराई हुई वस्तु को देती हुई।