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श्री सैठिया जैन ग्रन्थमाला
.. मध्यम तीर्थङ्कर के साधुओं के लिए नीचे लिखे छः अन
वस्थित हैं अर्थात आवश्यकता पड़ने पर ही किए जाते हैं। जैसे ' (१) अचेलकल्प(२) औदेशिक कल्प (३) प्रतिक्रमण (४) राज
पिण्ड (५) मास कल्प (६) पर्यषणा कल्प। . इनके सिवाय नीचे लिखे चार स्थित कल्प अर्थात् अवश्य '. कर्तव्य हैं। जैसे- (१) शय्यातरपिंड (२) कृतिकर्म (३) व्रतकल्प (४) ज्येष्ठ कल्प।
(पंचाशक १७ वां) ६६३-ग्रहणैषणा के दस दोष ।
भोजन आदि ग्रहण करने को ग्रहणैषणा कहते हैं। इसके दस दोष हैं। साधु को उन्हें जान कर वरजना चाहिए ।
संकिय मक्खिय निक्खित्त। पिहिय साहरिय दायगुम्मीसे ॥ अपरिणय लित्त छड्डिय।
एसणदोसा दस हवंति।। (१) संकिय (शंकित)- आहार में प्राधाकर्म आदि दोषों की शङ्का होने पर भी उसे लेना शङ्कित दोष है। (२) मक्विय (म्रक्षित)- देते समय आहार, चम्मच आदि । या हाथ आदि किसी अङ्गका सचित्त वस्तु से छू जाना(संघटा
होना) प्रक्षित दोष है। ___इसके दो भेद हैं- सचित्त म्रक्षित और अचित्त प्रक्षित । • सचित्त प्रक्षित तीन प्रकार का है- पृथ्वीकाय म्रक्षित, अप्काय प्रक्षित और वनस्पतिकाय म्रक्षित । यदि देय वस्तु या हाथ आदि सचित्त पृथ्वी से छू जायँ तो पृथ्वीकाय प्रतित है । अप्काय प्रक्षित के चार भेद हैं- पुरस्कर्म, पश्चात्कर्म, स्निग्ध और उदकाई । दान देने से पहिले साधु के निमित्त हाथ आदि सचित्त पानी से धोना पुरस्कर्म है । दान देने के बाद धोना