________________
श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह
२०९
है, जिससे भूत, भविष्यत और वर्तमान काल के सूक्ष्म, व्यवहित, छिपे हुए, अतीन्द्रिय तथा अमूर्त पदार्थ स्पष्ट जाने जाते हैं। (४) रौद्र रस-भय को उत्पन्न करने वाले, शत्रु और पिशाच श्रादि के रूप, उनके शब्द, घोर अन्धकार तथा भयङ्कर अटवी आदि की चिन्ता, वर्णन तथा दर्शन से मन में रौद्र रस की उत्पत्ति होती है । सम्मोह अर्थात् किंकर्तव्यमूढ हो जाना, व्याकुलता, दुःख, निराशा तथा गजमुकुमाल को मारने वाले सोमिल ब्राह्मण की तरह मृत्य, इसके खास चिह्न हैं। जैसेभिउडीविडंबियमुहो संदट्ठोट इअरुहिरमाकिरणो। हणसि पसुं असुरणिभो भीमरसिभ अइरोह ॥ . अर्थात्-तुमने भृकुटी तान रक्खी है। मुँह टेढ़ा कर रखा है। ओठ काट रहे हो, रुधिर बिखरा हुआ है, पशुओं को मार रहे हो,भयङ्कर शब्द कर रहे हो, भयङ्कर आकृति है, इससे मालूम पड़ता है कि तुम रौद्र परिणाम वाले हो। . (५) ब्रीडारस-विनय के योग्य गुरु श्रादि की विनय न करने से, किसी छिपाने योग्य बात को दूसरे पर प्रकट करने से तथा किसी तरह का दुष्कर्म हो जाने से लज्जा या त्रीडा उत्पन्न होती है । लज्जित तथा शङ्कित रहना इसके लक्षण हैं। सिर नीचा करके अङ्गों को संकुचित कर लेने का नाम लज्जा है। कोई मुझे कुछ कह न दे, इस प्रकार हमेशा शङ्कित रहना शङ्का है। (६) बीभत्स रस- अशुचि अर्थात् विष्टा और पेशाब आदि, शव तथा जिस शरीर से लाला आदि टपक रही हों इस प्रकार की घृणित वस्तुओं के देखने तथा उनकी दुर्गन्ध से बीभत्स रस उत्पन होता है। निर्वेद तथा हिंसा आदि पापों से निवृत्ति इसके लक्षण हैं। इस प्रकार की घृणित वस्तुओं को देखकर संसार से विरक्ति हो जाती है तथा मनुष्य पापों से निवृत्त होता है।