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श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह
। नव तत्वों का यह संक्षिप्त विवरण है। इन नब तत्वों के जानने के फल का निर्देश करते हुए बतलाया गया है कि-- जीवाइ नव पयस्थे जो जाणइ तस्स होइ सम्मतम् । भावण सद्दहंतो अयाणमाणे वि सम्मत्तम् ॥
अथात्- जो जीवादि नव तत्त्वों को भली प्रकार जानता है तथा सम्यक श्रद्धान करता है, उसे सम्यक्त्व की प्राप्ति होती है।
( उववाई, सूत्र १६ ) ( उत्तराध्ययन अ०३०) (भगवती शतक २५ उ० ७) - नवनवों में जीव, अजीव और पुण्य ये तीन ज्ञेय हैं अर्थात जानने योग्य हैं। संवर निर्जरा और मोन ये तीन उपादेय (ग्रहण करने योग्य) हैं । पाप, पाश्रव और बन्ध ये तीन हेय (छोड़ने योग्य) हैं। ". पुण्य की तीन अवस्थाएं हैं-उपादेय, ज्ञेय और हेय। प्रथम
अवस्था में जब तक मनुष्य भव,आर्यक्षेत्र आदि पुण्य प्रकृतियाँ नहीं प्राप्त हुई हैं तब तक के लिए पुण्य उपादेय है, क्योंकि इन प्रकृतियों के बिना चारित्र की प्राप्ति नहीं होती। चारित्र माप्त हो जाने के बाद अर्थात् साधकावस्था में पुण्य ज्ञेय है अर्थात् उस समय न तो मनुष्यत्वादि पुण्य प्रकृतियों को प्राप्त करने की इच्छा की जाती है और न छोड़ने की, क्योंकि वे मोक्ष तक पहुँचाने में सहायक हैं। चारित्र की पूर्णता होने पर अर्थात् चौदहवें गुणस्थान में वे हेय हो जाती हैं, क्योंकि शरीर को छोड़े बिना मोक्ष की प्राप्ति नहीं हो सकती। सब कर्म प्रकृतियों का सर्वथा तय होने पर ही मोक्ष की प्राप्ति होती है। जैसे समुद्र को पार करने के लिए समुद्र के किनारे पर खड़े व्यक्ति के लिए नौका उपादेय है। नौका में बैठे हुए व्यक्ति के लिए ज्ञेय है अर्थात् न हेय और न उपादेय। दूसरे किनारे पर पहुँच जाने के बाद नौका हेय है, क्योंकि नौका को छोड़े बिना दसरे