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श्री जैन सिद्धान्त बोल संप्रद
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न पूछने वाले दाता से ही आहारादि की गवेषणा करना। (२४) भिकरवलाभिए (भिक्षालाभिक)- रूखे, सूखे तुच्छ माहार की गवेषणा करना । .. (२५) अभिक्खलाभिए (अभिज्ञा लाभिक)- सामान्य आहार को गवेषणा करना। (२६) अण्ण गिलायए (अनग्लायक)- अन्न के बिना ग्लानि पाना अर्थात् अभिग्रह विशेष के कारण प्रातःकाल ही आहार की गवेषणा करना। (२७) अोवणिहिए (औपनिहितक)- किसी तरह पास में रहने वाले दाता से आहारादि की गवेषणा करना। (२८) परिमिय पिंडवाइए (परिमितपिंडपातिक)-परिमित आहार की गवेषणा करना। (२६) सुद्धसणिए- (शुद्धैषणिक)- शङ्कादि दोष रहित शुद्ध एषणा पूर्वक कूरा आदि तुच्छ अन्नादि की गवेषणा करना। (३०) संखादत्तिए (संख्यादत्तिक)-बीच में धार न टूटते हुए एक बार में जितना आहार या पानी साधु के पात्र में गिरे उसे एक दत्ति कहते हैं। ऐसी दत्तियों की संख्या का नियम करके भिक्षा की गवेषणा करना।
रस परित्याग के. भेद - जिहा के स्वाद को छोड़ना रस परित्याग है। इसके अनेक भेद हैं। किन्तु सामान्यतः नौ हैं।. (१) प्रणीतरस परित्याग-जिसमें घी दूध आदि की बूंदें टपक रही हों ऐसे आहार का त्याग करना। (२) आयंबिल- भात, उड़द आदि से प्रायम्बिल करना। (३) आयामसिक्थभोजी- चावल आदि के पानी में पड़े हुए धान्य आदि का पाहार।
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