SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 220
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १८८ श्री सेठिया जैन मन्थमाला गुण की अपेक्षा दक्षण सुनकर फिर लेना । जैसे- यह जल ठंडा तो है परन्तु खारा है, इत्यादि। (१४) प्रवणीयोवणीय चरए (अपनीतोपनीत चरक)- मुख्य रूप से अवगुण और सामान्य रूप से गुण को सुन कर उस पदार्थ कोलेना। जैसे यह जल खारा है किन्तु ठंडा है इत्यादि । (१५) संसहचरए (संसष्ट चरक)-- उसी पदार्थ से खरड़े हुए हाथ से दिये जाने वाले आहार की गवेषणा करना। (१६) असंसहचरए (असंसृष्ट चरक)- बिना खरड़े हुए हाथ से दिये जाने वाले आहार की गवेषणा करना। (१७) तज्जाय संसहचरए (तज्जातसंसृष्ट चरक)-भिक्षा में दिए ". जाने वाले पदार्थ के समान (अविरोधी) पदार्थ से खरड़े हुए हाथ से दिये जाने वाले पदार्थ की गवेषणा करना। (१८) अण्णायचरए (अज्ञात चरक)- अपना परिचय दिए बिना आहार की गवेषणा करना। (१६) मोण चरए (मौन चरक)-मौन धारण करके आहारादि की गवेषणा करना। (२०) दिहलाभिए (दृष्टलाभिक)-दृष्टिगोचर होने वाले आहार की ही गवेषणा करना अथवा सबसे प्रथम दृष्टिगोचर होने वाले दाता से ही भिक्षा लेना। (२१) अदिहलाभिए (अदृष्ट लाभिक)-अदृष्ट अर्थात् पर्दे आदि के भीतर रहे हुए आहार की गवेषणा करना अथवा पहले नहीं देखे हुए दाता से आहार लेना। (२२) पुटलाभिए (पृष्टलाभिक)- हे मुनि ! तुम किस चीज की जरूरत है ? इस प्रकार प्रश्न पूछने वाले दाता से आहार आदि की गवेषणा करना। (२३) अपुटलाभिए (अपृष्टलाभिक)- किसी प्रकार का प्रश्न
SR No.010510
Book TitleJain Siddhanta Bol Sangraha Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhairodan Sethiya
PublisherJain Parmarthik Sanstha Bikaner
Publication Year1942
Total Pages490
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_related_other_literature
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy