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श्री सेठिया जैन ग्रन्थमाला
(६) जिस प्रकार चतुष्पद (पशु) को खूंटे का, (७) रोगी को औषधिका और (८) अटवी (जंगल) में मार्ग भूले हुए पथिक को किसी के साथ का आधार होता है, उसी प्रकार संसार में कर्मों के वशीभूत होकर नाना गतियों में भ्रमण करते हुए भव्य प्राणियों के लिए अहिंसा का आधार है । त्रस स्थावर आदि सभी प्राणियों के लिए अहिंसा क्षेमंकरी अर्थात् हितकारी है । इसीलिए इसे भगवती कहा गया है 1 ६२३ - संघ की आठ उपमाएं
( प्रश्न व्याकरण, प्रथम संवर द्वार )
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साधु, साध्वी, श्रावक, श्राविका, इन चारों तीर्थों के समूह को संघ कहते हैं । नन्दी सूत्र की पीठिका में इसको निम्न लिखित आठ उपमाएं दी गई हैं
( १ ) पहली उपमा नगर की दी गई है।
गुणभवणगहण सुरयणभरिय दंसणविसुद्धरत्थागा । संघनगर ! भद्दं ते अखंडचा रित्तपागार
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अर्थात् जो पिंडविशुद्धि, पाँच समितियाँ, बारह भावनाएं आभ्यन्तर और बाह्य तप, भिक्षु तथा श्रावक की पडिमाएं और अभिग्रह इन उत्तरगुण रूपी भवनों के द्वारा सुरक्षित है; जो शास्त्र रूपी रत्नों से भरा हुआ है; प्रशम, संवेग, निर्वेद, अनुकम्पा और आस्तिक्य रूप चिह्नों के द्वारा जाने हुए क्षायिक, क्षायोपशमिक तथा औपशमिक सम्यक्त्व जहाँमार्ग हैं; अखंड अर्थात् निर्दोष मूलगुण रूपी चारित्र जिस का प्राकार है, ऐसे हे संघ रूपी नगर ! तेरा कल्याण हो । (२) दूसरी उपमा चक्र की दी गई हैसंजमतवतुंबारयस्स नमो सम्मत्तपारियलस्स । पचिक्कस्स जो होउ सया संघचक्कस्स ॥ अर्थात् सतरह प्रकार का संयम जिस की धुरा है, बारह