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श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह
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से धृति कही जाती है। (१६) समिद्धी (समृद्धि), (२०) रिद्धी (ऋद्धि), (२१) विद्धी (वृद्धि)- अहिंसा समृद्धि, ऋद्धि और वृद्धि की देने वाली होने से क्रमशः उपरोक्त नामों से पुकारी जाती है। (२२) ठिती (स्थिति)- मोक्ष में स्थिति कराने वाली होने से अहिंसा स्थिति कहलाती है । (२३) पुण्य की वृद्धि करने वाली होने से पुट्टी (पुष्टि), (२४) आनन्द की देने वाली होने से नन्दा, (२५) भद्र अर्थात् कल्याण की देने वाली होने से भद्रा, (२६) पाप का क्षय कर जीव को निर्मल करने वाली होने से विशुद्धि (२७) केवलज्ञानादि लब्धि का कारण होने से अहिंसा लद्धि (लब्धि) कहलाती है । (२८.) विसिहदिट्ठी (विशिष्ट दृष्टि) सब धर्मों में अहिंसा ही विशिष्ट दृष्टि अर्थात् प्रधान धर्म माना गया है। यथा
किं तए पढियाए पयकोडीए पलाल भूयाए। जत्थेत्तियं न णायं परस्स पीडा न कायव्वा ॥१॥ अर्थात्-प्राणियों को किसी प्रकार की तकलीफ न पहुँचानी चाहिए, यदि यह तत्त्व न सीखा गया तो करोड़ों पद अर्थात् सैकड़ों शास्त्र पढ़ लेने से भी क्या प्रयोजन ? क्योंकि अहिंसा के बिना वे सब पलालभूत अर्थात् निःसार हैं। (२६) कल्लाणं (कल्याण)- अहिंसा कल्याण की प्राप्ति कराने वाली है। (३०)मंगलं-मं (पापं) गालयतीति मङ्गलं अर्थात् जो पापों को नष्ट करे वह मंगल कहलाता है। मंगं श्रेयः कल्याणं लाति ददातीति मङ्गलं अर्थात् कल्याण को देने वाला मङ्गल कहलाता है। पाप विनाशिनी होने से अहिंसा मङ्गल कहलाती है। (३१) प्रमोद की देने वाली होने से पमोअ (प्रमोद), (३२) सब विभूतियों की देने वाली होने से विभूति, (३३) सब जीवों की