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श्रीजैन सिद्धान्त बोल संग्रह
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आकाश के सहारे ठहरा हुआ है । आकाश को किसी सहारे की आवश्यकता नहीं होती। उसके नीचे कुछ नहीं है । (२) वात-घनोदधि अर्थात् पानी वायु पर स्थिर है। (६) घनोदधि- रत्नप्रभा वगैरह पृथ्वियाँ घनोदधि पर ठहरी हुई हैं । यद्यपि ईषत्माग्भारा नाम की पृथ्वी जहाँ सिद्ध क्षेत्र है, घनोदधि पर ठहरी हुई नहीं है, उसके नीचे आकाश ही है, तो भी बाहुल्य के कारण यही कहा जाता है कि पृथ्वियाँ घनोदधि पर ठहरी हुई हैं। (४) पृथ्वी- पृथ्वियों पर त्रस और स्थावर जीव ठहरे हैं। (५) जीव-शरीर आदि पुद्गल रूप अजीव जीवों का आश्रय लेकर ठहरे हुए हैं, क्योंकि व सब जीवों में स्थित हैं। (६) कर्म- जीव कमों के सहारे ठहरा हुआ है, क्योंकि संसारी जीवों का आधार उदय में नहीं आए हुए कर्म पुद्गल ही हैं। उन्हीं के कारण वे यहाँ ठहरे हुए हैं। अथवा जीव कर्मों के
आधार से ही नरकादि गति में स्थिर हैं। (७) मन और भाषा वर्गणा आदि के परमाणुओं के रूप में अजीव जीवों द्वारा संगृहीत (स्वीकृत) हैं। (८) जीव कर्मों के द्वारा संगृहीत (बद्ध) हैं।
__ (भगवती शतक १ उद्देशा ६ ) (टाणांग ८, सुत्र ६००) पाँचवे छठे बोल में आधार आधेय भाव की विवक्षा है और सातवें आठवें बोल में संग्राह्य संग्राहक भाव की विवक्षा है । यही इनमें भेद है। यों संग्राह्य संग्राहक भाव में अर्यापत्ति से आधाराधेय भाव आ ही जाता है।
लोक स्थिति को समझाने के लिए मशक का दृष्टान्त दिया जाता है । जैसे मशक को हवा से फुलाकर उसका मुँह बंद कर दिया जाय । इसके बाद मशक के मध्य भाग में गाँठ