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श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह
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दूसरे परमाणुओं का आकर मिलना पूरण है। मिले हुए परमाणुओं का अलग होना गलन है। पुद्गल के ये दो स्वभाव हैं। परमाणुओं का मिलना और अलग होना पुद्गलस्कन्ध में होता है । वे जीव की अपेक्षा अनन्त गुणे हैं। सारा लोकाकाश अनन्तानन्त पुद्गलस्कन्धों द्वारा भरा है । जितने समय में जीव सभी परमाणुओं को औदारिक आदि शरीर के रूप में परिणत करके छोड़े उस काल को सामान्य रूप से वादर द्रव्यपुद्गलपरावर्तन कहते हैं। इसी प्रकार काल आदि में भी जानना चाहिए। सूक्ष्म और वादर के भेद से वे आठ हैं । वादर का स्वरूप मूक्ष्म को अच्छी तरह समझने के लिए दिया गया है। शास्त्रों में जहाँ पुरलपरावर्तन काल का निर्देश आता है वहाँ सूक्ष्म पुद्गलपरावर्तन ही लेना चाहिए । जैसे सम्यक्त्व पाने के बाद जीव अधिक से अधिक कुछ न्यून अर्द्ध पुद्गलपरावर्तन में अवश्य मोक्ष प्राप्त करता है। यहाँकाल का मूक्ष्म पुद्गल परावर्तन ही लिया जाता है
(कर्म ग्रन्थ भाग ५ गाथा ८६-८८) ६१६- संख्याप्रमाण पाठ
जिसके द्वारा गिनती, नाप, परिमाण या स्वरूप जाना जाय उसे संख्याप्रमाण कहते हैं। इसके पाठ भेद हैं
(१) नामसंख्या (२) स्थापना संख्या (३) द्रव्य संख्या (४) उपमान संख्या (५) परिमाण संख्या (६) ज्ञान संख्या (७) गणना संख्या (८) भाव संख्या। (१) नाम संख्या- किसी जीव या अजीव का नाम 'संख्या' रख देना नाम संख्या है। ( २ ) स्थापना संख्या- काठ या पुस्तक वगैरह में संख्या की कल्पना कर लेना स्थापना संख्या है। नामसंख्या श्रायुपर्यन्त रहती है और स्थापनासंख्याथोड़े काल के लिए भी हो सकती है।