________________
श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह
११७
में जो आसन लगाया जाता है उसे कायोत्सर्गासन कहते हैं । खड़े होकर करने में बाहुएं लम्बी रहती हैं । जिनकल्पी और
स्थ अवस्था में तीर्थङ्करों का ध्यान खड़े खड़े ही होता है । स्थविरकल्पियों का दोनों तरह से होता है । विशेष अवस्था में लेटे हुए भी कायोत्सर्ग होता है । यहाँ थोड़े से आसन बताए गए हैं। इसी प्रकार और भी बहुत से हैं- आम की तरह ठहरने को आम्रकुब्जासन कहते हैं। इसी आसन से बैठ कर भगवान् ने एकत्रिकी प्रतिमा अङ्गीकार की थी। उसी आसन में संगम के उपसर्गों को सहा था । मुँह ऊपर की तरफ, नीचे की तरफ या तिर्छा करके एक ही पसवाड़े से सोना । डण्डे की तरह जंघा, घुटने, हाथ वगैरह फैलाकर बिना हिले डुले सोना। सिर्फ मस्तक और एड़ियों से जमीन को छूते हुए बाकी सब अङ्गों को अधर रखकर सोना । समसंस्थान अर्थात् एड़ी और पंजों को संकुचित करके एक दूसरे के द्वारा दोनों को पीड़ित करना । दुर्योधासन अर्थात् सिर को जमीन पर रखते हुए पैरों को ऊपर ले जाना । इसी को कपालीकरण या शीर्षासन भी कहा जाता है । शीर्षासन करते हुए अगर पैरों से पद्मासन लगा ले तो वह दण्डपद्मासन हो जाता है। बाएँ पैर को संकुचित कर के दाएं ऊरु और जंघा के बीच में रक्खे और दांए पैर को संकुचित करके बाएँ ऊरु और जंघा के बीच में रक्खे तो स्वस्तिकासन हो जाता है। इसी तरह क्रौञ्च, हंस, गरुड़ आदि के बैठने की तरह अनेक आसन हो सकते हैं।
जिस व्यक्ति का जिस आसन से मन स्थिर रहता है, योगसिद्धि के लिए वही आसन अच्छा माना गया है। योगसाधन के लिए आसन करते समय नीचे लिखी बातों का ध्यान रखना चाहिए। ऐसे आसन से बैठे जिस में अधिक से अधिक देर तक बैठने पर भी कोई अङ्ग न दुखे । अङ्ग दुखने से मन