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श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह
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विदेह के नपुंसक मनुष्य उत्तरोत्तर संख्यातगणे हैं। ईशानकल्प के देव उनसे संख्यात गुणे हैं। इसके बाद ईशानकल्प की देवियाँ, सौधर्म कल्प के देव और सौधर्म कल्प की देवियाँ उत्तरोत्तर संख्यातगुणी हैं। भवनवासी देव उनसे असंख्यात गुणे हैं । भवनवासी देवियाँ उनसे संरख्यात गुणी। रत्नप्रभा के नारक उनसे असंख्यातगुणे हैं। इनके बाद खेचर तिर्यश्च योनि के पुरुष, खेचर तिर्यश्चयोनि को स्त्रियाँ, स्थलचर तिर्यश्चयोनि के पुरुष, स्थलचर स्त्रियाँ, जलचर पुरुष, जलचर स्त्रियाँ, वाणव्यन्तर देव,वाणव्यन्तर देवियाँ,ज्योतिषी देव,ज्योतिषी देवियाँ उत्तरोत्तर संख्यातगुणी हैं। खेचर तिर्यश्च नपुंसक उनसे असंख्यात गुणे, स्थलचर नपुंसक उनसे संख्यातगुण तथा जलचर उनसे संख्यातगुणे हैं। इसके बाद चतुरिन्द्रिय,त्रीन्द्रिय और द्वीन्द्रिय नपुंसक उत्तरोत्तर विशेपाधिक हैं । तेउकाय उनसे असंख्यातगुणी है। पृथ्वी, जल और वायु के जीव उनसे उत्तरोत्तर विशेषाधिक हैं । वनस्पतिकाय के जीव उनसे अनन्तगुणे हैं,क्योंकि निगोद के जीव अनन्तानन्त हैं।
(जीवाभिगम प्रतिपत्ति २ सूत्र ६३) ६००- आयुर्वेद पाठ
जिस शास्त्र में पूरी आयु को स्वस्थ रूप से बिताने का तरीका बताया गया हो अर्थात् जिस में शरीर को नीरोग और पुष्ट रखने का मार्ग बताया हो उसे आयुर्वेद कहते हैं । इसका दूसरा नाम चिकित्सा शास्त्र है । इसके अाठ भेद हैं(१) कुमारभृत्य- जिस शास्त्र में बच्चों के भरणपोषण, मां के दूध वगैरह में कोई दोष हो, अथवा दूध के कारण बच्चे में कोई बीमारी हो तो उसे और दूसरे सब तरह के बालरोगों को दूर करने की विधि बताई हो। (२)कायचिकित्सा-ज्वर, अतिसार, रक्त, शोथ, उन्माद, प्रमेह