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श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह ९५ कर्म विषयक जीव का वीर्य विशेष विवक्षित है । करण आठ हैं(१) बन्धन-- आत्मप्रदेशों के साथ कमों को क्षीर-नीर की तरह एक रूप मिलाने वाला जीव का वीर्य विशेष बन्धन कहलाता है। (२) संक्रमण-- एक प्रकार के प्रकृति, स्थिति, अनुभाग और प्रदेशबन्ध को दूसरी तरह से व्यवस्थित करने वाला जीव का वीर्य विशेष संक्रमण कहलाता है। (३) उद्वर्तना- कमों की स्थिति और अनुभाग में वृद्धि करने वाला जीव का वीर्य विशेष उद्वर्तना है। (४) अपवर्तना-- कर्मों की स्थिति और अनुभाग में कमी करने वाला जीव का वीर्य विशेष अपवर्तना है। (५) उदीरणा-- अनुदय प्राप्त कर्म दलिकों को उदयावलिका में प्रवेश कराने वाला जीव का वीर्य विशेष उदीरणा है। (६) उपशमना- जिस वीर्य विशेष के द्वारा कर्म उदय, उदीरणा, निधत्ति और निकाचना के अयोग्य हो जाँय वह उपशमना है । (७) निधत्ति-- जिससे कर्म उद्वर्तना और अपवर्तनाकरण के सिवाय शेष करणों के अयोग्य हो जायँ वह वीर्य विशेष निधत्ति है। (८) निकाचना- कर्मों को सभी करणों के अयोग्य एवं अवश्यवेद्य बनाने वाला जीव का वीर्य विशेष निकाचना है।
(कर्मप्रकृति गाथा २) (भगवती शतक १ उद्देशा २-३ ) ५६३- आत्मा के आठ भेद ___ जो लगातार दूसरी दुसरीख-पर पर्यायों को प्राप्त करता रहता है वह आत्मा है । अथवा जिसमें हमेशा उपयोग अर्थात बोध रूप व्यापार पाया जाय वह आत्मा है । तत्त्वार्थ सूत्र में आत्मा का लक्षण बताते हुए कहा है- ' उपयोगो लक्षणम्' अर्थात् आत्मा का स्वरूप उपयोग है। उपयोग की अपेक्षा सामान्य रूप से सभी प्रात्माएं एक प्रकार