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श्री सेठिया जैन ग्रन्थमाला
और उस समय बंधने वाली अन्य कर्म प्रकृतियों का अनुभाग बन्ध गौण रूप से होता है। एक समय एक ही कर्म प्रकृति का अनुभाग बन्ध होता हो और दूसरी का न हो, यह तो माना नहीं जा सकता। कारण यह है कि जिस समय योग (मन, वचन, काया के व्यापार) द्वारा जितनी कर्म प्रकृतियों का प्रदेशबन्ध संभव है उसी समय कपाय द्वारा उनके अनुभाग बन्ध का भी संभव है। इस प्रकार अनुभाग बन्ध की मुख्यता की अपेक्षा ही कर्मवन्ध के कारणों के विभाग की संगति होती है।
प्रज्ञापना२३ पद में कर्म के आठ भेदों के क्रम की सार्थकता यों बताई गई है- ज्ञान और दर्शन जीव के स्वतत्त्व रूप हैं। इनके बिना जीवत्व की ही उपपत्ति नहीं होती । जीव का लक्षण चेतना (उपयोग) है और उपयोग ज्ञान दर्शन रूप है। फिर ज्ञान
और दर्शन के बिना जीव का अस्तित्व कैसे रह सकता है ? ज्ञान और दर्शन में भी ज्ञान प्रधान है। ज्ञान से ही सम्पूर्ण शास्त्रादि विषयक विचार परम्परा की प्रवृत्ति होती है । लब्धियाँ भी ज्ञानोपयोग वाले के होती हैं, दर्शनोपयोग वाले के नहीं। जिस समय जीव सकल कर्मों से मुक्त होता है उस समय वह ज्ञानोपयोग वाला ही होता है, दर्शनोपयोग तो उसे दूसरे समय में होता है । इस प्रकार ज्ञान की प्रधानता है । इसलिये ज्ञान का
आवारक ज्ञानावरणीय कमे भी सर्व प्रथम कहा गया है। ज्ञानोपयोग से गिरा हुआ जीव दर्शनोपयोग में स्थित होता है। इस लिए ज्ञानावरण के बाद दर्शन का आवारक दर्शनावरणीय कर्म कहा गया है। ये ज्ञानावरणीय और दर्शनावरणीय कर्म अपना फल देते हुए यथायोग्य सुख दुःख रूप वेदनीय कर्म में निमित्त होते हैं। गाढ़ ज्ञानावरणीय कर्म भोगता हुआ जीव सूक्ष्म वस्तुओं के विचार में अपने को असमर्थ पाता है और