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श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह
संस्कारित गन्ध पुद्गलपरिणाम से भोगान्तराय का उदय होता है। स्वाभाविक पुद्गलपरिणाम भी अन्तराय के अनुभाव में निमित्त होता है, जैसे ठएड पड़ती देख कर दान देने की इच्छा होते हुए भी दाता वस्त्रादि का दान नहीं दे पाता और इस प्रकार दानान्तराय का अनुभव करता है। यह परतः अनुभाव हुआ । अन्तराय कर्म के उदय से दान, भोग आदि में अन्तराय रूप फल का जो भोग होता है वह स्वतः अनुभाव है।
शङ्का- शास्त्रों में बताया है कि सामान्य रूप से आयुकर्म के सिवाय शेष सात कर्मों का बन्ध एक साथ होता है। इसके अनुसार जिस समय ज्ञानावरणीय के बन्ध कारणों से ज्ञानावरणीय का बन्ध होता है उसी समय शेष प्रकृतियों का भी बन्ध होता ही है। फिर अमुक बन्ध कारणों से अमुक कर्म का ही बन्ध होता है, यह कथन कैसे संगत होगा? इसका समाधान पं० सुखलालजी ने अपनी तत्त्वार्थमूत्र की व्याख्या में इस प्रकार दिया है__ आठों कर्मों के बन्ध कारणों का जो विभाग बताया गया है वह अनुभाग बन्ध की अपेक्षा समझना चाहिए । सामान्य रूप से आयुकमे के सिवाय सातों कर्मों का बन्ध एक साथ होता है, शास्त्र का यह नियम प्रदेशबन्ध की अपेक्षा जानना चाहिये । प्रदेशबन्ध की अपेक्षा एक साथ अनेक कर्म प्रकृतियों का बन्ध माना जाय और नियत आश्रवों को विशेष कर्म के अनुभाग बन्ध में निमित्त माना जाय तो दोनों कथनों में संगति हो जायगी और कोई विरोध न रहेगा । फिर भी इतना और समझ लेना चाहिये कि अनुभाग बन्ध की अपेक्षा जो बन्धकारणों के विभाग का समर्थन किया गया है वह भी मुख्यता की अपेक्षा ही है । ज्ञानावरणीय कर्मबन्ध के कारणों के सेवन के समय ज्ञानावरणीय का अनुभाग बन्ध मुख्यता से होता है