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श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह
प्रकृतियाँ होती हैं। एक शरीर के पुद्गलों के साथ उसी शरीर के पुद्गलों के बंध की अपेक्षा बंधन नामकर्म के पाँच भेद हैं। परन्तु एक शरीर के साथ जिस प्रकार उसी शरीर के पुद्गलों का बंध होता है उसी तरह दूसरे शरीरों के पुद्गलों का भी। इस विवक्षा से बन्धन नामकर्म के १५ भेद हैं । वे ये हैं – (१) औदारिक
औदारिक बन्धन (२) प्रौदारिक-तैजस बन्धन (३) औदारिक कार्मण बन्धन (४) वैक्रिय-वैक्रिय बन्धन (५) वैक्रिय-तैजस बन्धन (६) वैक्रिय-कार्मण बन्धन (७) आहारक-आहारक वन्धन (E) आहारक-तैजस बन्धन (8) आहारक-कार्मण बन्धन (१०) औदारिक-तैजस- कार्मण बन्धन (११) वैक्रिय-तैजस कार्मण बन्धन (१२) आहारक-तैजस-कार्मण बन्धन (१३) तैजस तैजस बन्धन (१४) तैजस-कार्मण बन्धन (१५) कार्मणकार्मण बन्धन । उक्त प्रकार से बन्धन नामकर्म के १५ भेद गिनने पर नामकर्म के १० भेद और बढ़ जाते हैं। इस प्रकार नामकर्म की १०३ प्रकृतियाँ हो जाती हैं। ___ यदि बंधन और संघात नामकर्म की १० प्रकृतियों का समावेश शरीर नामकर्म की प्रकृतियों में कर लिया जाय तथा वर्ण, गन्ध, रस और स्पशे की २० प्रकृतियाँ न गिन कर सामान्य रूप से चार प्रकृतियाँ ही गिनी जायँ तो बंध की अपेक्षा से नाम कर्म की ६३-२६-६७ प्रकृतियाँ हैं, क्योंकि वर्ण, रस, गन्ध और स्पर्श आदि की एक समय में एक ही प्रकृति बंधती है । नामकर्म की स्थिति जघन्य आठ मुहूते, उत्कृष्ट बीस कोडाकोड़ी 'सागरोपम की है। शुभ और अशुभ के भेद से नामकर्म दो प्रकार का है । काया की सरलता, भाव की सरलता और भाषा की सरलता तथा अविसंवादनयोग, ये शुभ नामकर्म बन्ध के हेतु हैं । कहना कुछ और करना कुछ, इस प्रकार