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श्री सेठिया जैन ग्रन्थमाला
ही हैं । ये मूक्ष्म प्राणी सारे लोकाकाश में व्याप्त हैं। ___ अपर्याप्त नामकर्म- जिस कर्म के उदय से जीव अपने योग्य पर्याप्तियाँ पूर्ण न करे वह अपर्याप्त नामकर्म है। अपर्याप्त जीव दो प्रकार के हैं- लब्धि अपर्याप्त और करण अपर्याप्त । ___ लब्धि अपर्याप्त जो जीव अपनी पर्याप्तियाँ पूर्ण किये बिना ही मरते हैं वे लब्धि अपर्याप्त हैं। लब्धि अपर्याप्त जीव भी आहार, शरीर और इन्द्रिय ये तीन पर्याप्तियाँ पूरी करके ही मरते हैं क्योंकि इन्हें परी किये बिना जीव के आगामी भव की आयु नहीं बंधती । __करण अपर्याप्त- जिन्होंने अब तक अपनी पर्याप्तियाँ पूर्ण नहीं की हैं किन्तु भविष्य में करने वाले हैं वे करण अपर्याप्त हैं।
साधारण नामकर्म- जिस कर्म के उदय से अनन्त जीवों का एक ही शरीर हो वह साधारण नामकर्म है।
अस्थिर नामकर्म-जिस कर्म के उदय से कान,भौंह,जीभ आदि अवयव अस्थिर अर्थात् चपल होते हैं वह अस्थिर नामकर्म है।
अशुभ नामकर्म- जिस कर्म के उदय से नाभि के नीचे के अवयव पैर आदि अशुभ होते हैं वह अशुभ नामकर्म है।
दर्भग नामकर्म- जिस कर्म के उदय से उपकारी होते हुए या सम्बन्धी होते हुए भी जीव लोगों को अप्रिय लगता है वह दुर्भग नामकर्म है।
दुःस्वर नामकर्म-जिस कर्म के उदय से जीव का स्वर कर्कश हो अर्थात सुनने में अप्रिय लगे वह दुःस्वर नामकर्म है।
अनादेय नामकर्म- जिस कर्म के उदय से जीव का वचन युक्तियुक्त होते हुए भी ग्राह्य नहीं होता वह अनादेय नामकर्म है।
अयशःकीर्ति नामकर्म- जिस कर्म के उदय से दुनिया में अपयश और अपकीर्ति हो वह अयशःकीर्ति नामकर्म है। पिण्ड प्रकृतियों के उत्तर भेद गिनने पर नामकर्म की ६३