________________
श्री सेठिया जैन ग्रन्थमाला
त्रसदशक की दस प्रकृतियों का स्वरूप निम्न प्रकार हैत्रसदशक-जो जीव सर्दी गर्मी से अपना बचाव करने के लिये एक जगह से दूसरी जगह जाते हैं वे त्रस कहलाते हैं। द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और पञ्चेन्द्रिय जीव त्रस हैं। जिस कर्म के उदय से जीवों को त्रसकाय की प्राप्ति हो उसे त्रस नामकर्म कहते हैं। J बादर नामकर्म-- जिस कर्म के उदय से जीव बादर अर्थात् मूक्ष्म होते हैं उसे वादर नामकर्म कहते हैं। जो चक्षु का विषय हो वह बादर है यहाँ बादर का यह अर्थ नहीं है, क्योंकि प्रत्येक पृथ्वीकाय आदि का शरीर बादर होते हुए भी आँखों से नहीं देखा जाता। यह प्रकृति जीव विपाकिनी है और जीवों में वादर परिणाम उत्पन्न करती है। इसका शरीर पर इतना असर अवश्य होता है कि बहुत से जीवों का समुदाय दृष्टिगोचर हो जाता है। जिन्हें इस कर्म का उदय नहीं होता, ऐसे सूक्ष्म जीव समुदाय अवस्था में भी दिखाई नहीं देते।
पर्याप्त नामकर्म- जिस कर्म के उदय से जीव अपने योग्य पर्याप्तियों से युक्त होते हैं वह पर्याप्त नामकर्म है । पर्याप्तियों का स्वरूप इसके दूसरे भाग बोल नं० ४७२ में दिया जा चुका है। । प्रत्येक नामकर्म-जिस कर्म के उदय से जीव में पृथक् पृथक शरीर होता है उसे प्रत्येक नामकर्म कहते हैं ।
स्थिर नामकर्म-जिस कर्म के उदय से दांत, हड्डी, ग्रीवा आदि शरीर के अवयव स्थिर(निश्चल) होते हैं उसे स्थिरनामकर्म कहते हैं।
शुभनामकर्म- जिस कर्म के उदय से नाभि के ऊपर के अवयव शुभ होते हैं उसे शुभ नामकर्म कहते हैं। सिर आदि शरीर के अवयवों का स्पर्श होने पर किसी को अप्रीति नहीं होती जैसे कि पैर के स्पर्श से होती है। यही नाभि के ऊपर के अवयवों का शुभपना है।