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श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह
कहते हैं। लब्धिधारी मुनि जब वैक्रिय शरीर धारण करते हैं, तथा देव जब अपने मूलशरीर की अपेक्षा उत्तर वैक्रिय शरीर धारण करते हैं उस समय उनके शरीर से शीतल प्रकाश निकलता है वह उद्योत नामकर्म के उदय से ही समझना चाहिए। इसी तरह चन्द्र, नक्षत्र और तारामण्डल के पृथ्वीकायिक जीवों के शरीर से जो शीतल प्रकाश निकलता है, रत्न तथा प्रकाशवाली औषधियाँ जो शीतल प्रकाश देती हैं, वह सभी उद्योत नाम : कर्म के फलस्वरूप ही है। ___ अगुरुलघु नामकर्म- जिस कर्म के उदय से जीव का शरीर न भारी होता है न हल्का ही होता है उसे अगुरुलघु नामकर्म कहते हैं । तात्पर्य यह है कि जीवों का शरीर न इतना भारी होता है कि वह संभाला ही न जा सके और न इतना हल्का होता है कि हवा से उड़ जाय किन्तु अगुरुलघु परिमाण वाला होता है, यह अगुरुलघु नामकर्म का ही फल है।
तीर्थङ्कर नामकर्म- जिस कर्म के उदय से जीव तीर्थङ्कर पद पाता है उसे तीर्थङ्कर नामकर्म कहते हैं ।
निर्माण नामकर्म-जिस कर्म के उदय से जीव के अङ्ग उपाङ्ग यथास्थान व्यवस्थित होते हैं उसे निर्माण नामकर्म कहते हैं । यह कर्म कारीगर के समान है। जैसे कारीगर मूर्ति में हाथ पैर
आदि अवयवों को उचित स्थान पर बना देता है, उसी प्रकार यह कर्म भी शरीर के अवयवों को अपने अपने नियत स्थान पर व्यवस्थित करता है अथवा जैसे मक्के आदि के दाने एक ही पंक्ति में व्यवस्थित होते हैं।
उपघात नामकर्म- जिस कर्म के उदय से जीव अपने ही अवयवों से स्वयं क्लेश पाता है। जैसे- प्रतिजिह्वा, चोरदांत, छठी अंगुली सरीखे अवयवों से उनके स्वामी को ही कष्ट होता है।