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श्री जैन सिद्धान्तबोल संग्रह .
जाना उन्माद है। छः कारणों से जीव को उन्माद की प्राप्ति होती है। वे इस प्रकार हैं(१) अरिहन्त भगवान् (२) अरिहन्त प्रणीत श्रुत चारित्र रूप धर्म (३) आचार्य उपाध्याय महाराज (४) चतुर्विध संघ का अवर्णवाद कहता हुआ या उनकी अवज्ञा करता हुआ जीव मिथ्यात्व पाता है। (५) निमित्त विशेष से कुपित देव से आक्रान्त हुआ जीव मिथ्यात्व पाता है। (६) मोहनीय कर्म के उदय से जीव मिथ्यात्व पाता है।
(ठाणांग ६ सूत्र ५०१) ४५८-अनात्मवान् (सकषाय) के लिए अहितकर
स्थान छः जो आत्मा कषाय रहित होकर अपने शुद्ध स्वरूप में अवस्थित नहीं है अर्थात् कषायों के वश होकर अपने स्वरूप को भूल जाता है, ऐसे सकषाय आत्मा को अनात्मवान् कहा जाता है। ऐसे व्यक्ति को नीचे लिखे छः बोल प्राप्त होने पर वह अभिमान करने लगता है । इस लिए ये बातें उसके लिए अहितकर, अशुभ, पाप तथा दुःख का कारण, अशान्ति करने वाली, अकल्याणकर तथा अशुभ बन्ध का कारण होती हैं। मान का कारण होने से इहलोक और परलोक को बिगाड़ती हैं। वे इस प्रकार हैं(१) पर्याय- दीक्षापर्याय अथवा उमर का अधिक होना। (२) परिवार-शिष्य, पशिष्य आदि की अधिकता। (३) श्रुत-शास्त्रीय ज्ञान का अधिक होना। (४) तप-तपस्या में अधिक होना। (५) लाभ-अशन,पान, वस्त्र, पात्र आदि की अधिक माप्ति।