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श्री सेठिया जैन ग्रन्थमाला
विद्युत् और विष प्रधान मेघ बरसेंगे। प्रलयकालीन पवन और वर्षा के प्रभाव से विविध वनस्पतियाँ एवं त्रस पाणी नष्ट हो जायेंगे । पहाड़ और नगर पृथ्वी से मिल जायेंगे । पर्वतों में एक वैताढ्य पर्वत स्थिर रहेगा और नदियों में गंगा और सिंधु नदियाँ रहेंगी। काल के अत्यन्त रूक्ष होने से सूर्य खूब तपेगा
और चन्द्रमा अति शीत होगा। गंगा और सिंधु नदियों का पाट रथ के चीले जितना अर्थात् पहियों के बीच के अन्तर जितना चौड़ा होगा और उनमें स्थ की धुरी प्रमाण गहरा पानी होगा । नदियाँ मच्छ कच्छपादि जलचर जीवों से भरी होंगी। भरत क्षेत्र की भूमि अंगार, भोभर राख तथा तपे हुए तवे के सदृश होगी । ताप में वह अग्नि जैसी होगी तथा धृलि और कीचड़ से भरी होगी। इस कारण प्राणी पृथ्वी पर कष्ट पूर्वक चल फिर सकेंगे। इस आरे के मनुष्यों की उत्कृष्ट अवगाहना एक हाथ की और उत्कृष्ट आयु सोलह और बीस वर्ष की होगी। ये अधिक सन्तान वाले होंगे । इनके वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श, संहनन, संस्थान सभी अशुभ होंगे। शरीर सब तरह से बेडौल होगा। अनेक व्याधियाँ घर किये रहेंगी। राग द्वेष और कषाय की मात्रा अधिक होगी। धर्म और श्रद्धा बिलकुल न रहेंगे। वैताढ्य पर्वत में गंगा और सिंधु महानदियों के पूर्व पश्चिम तट पर ७२ बिल हैं वे ही इस काल के मनुष्यों के निवास स्थान होंगे। ये लोग सूर्योदय और सूर्यास्त के समय अपने अपने बिलों से निकलेंगे और गंगा सिंधु महानदी से मच्छ कच्छपादि पकड़ कर रेत में गाड़ देंगे । शाम के गाड़े हुए मच्छादि को सुबह निकाल कर खाएँगे और सुबह के गाड़े हुए मच्छादि शाम को निकाल कर खायेंगे। व्रत, नियम और प्रत्याख्यान से