________________ श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह 371 से ही हो सकते हैं। वस्तु का पहिले सामान्य ज्ञान होता है फिर विशेष / अवग्रह, ईहा, अवाय, धारणा भी क्रम से ही होते हैं। जिस तरह सामान्य और विशेष ज्ञान एक साथ नहीं हो सकते उसी तरह बहुत से विशेष ज्ञान भी एक साथ नहीं हो सकते / परस्पर भिन्न विषय वाले विशेष ज्ञान भिन्न 2 समयों की अपेक्षा रखते हैं। एक विशेष ज्ञान के बाद द्वितीय क्षण में दूसरा विशेषज्ञान नहीं हो सकता, क्योंकि विशेषज्ञान से पहिले सामान्य ज्ञान का होना आवश्यक है / अवग्रह ईहादि क्रम से ही विशेष ज्ञान उत्पन्न होता है / एक विशेष ज्ञान के कई क्षणों के बाद दूसरा विशेष ज्ञान उत्पन्न होता है। ऐसी दशा में उन का एक साथ होना तो असम्भव ही है। पहिले घटत्वाश्रय घट आदि का सामान्य ज्ञान होता है। उसके बाद 'यह धातु का बना हुआ है या मिट्टी का इस प्रकार संशय होने पर ईहा होती है / फिर अवाय में यह धातु का बना हुआ है, इस प्रकार निश्चय होता है। इन में पूर्व पूर्व ज्ञान उत्तरोत्तर ज्ञान की अपेक्षा सामान्य है। फिर 'यह ताम्बे का है चांदी का नहीं है' इत्यादि निश्चय (धारणा) होता है। सामान्य रूप से तो विशेषों का ग्रहण एक साथ भी हो सकता है। जैसे सेना वन इत्यादि / शीत और उष्ण का ज्ञान भिन्न भिन्न समय में ही होता है / इसलिए क्रियाद्वयवादी का मत भ्रान्त है। (६)ौराशिक-भगवान् महावीर की मुक्ति के पाँच सौ चवालीस साल बाद त्रैराशिकदृष्टि नाम का छठा निदव हुआ। अन्तरञ्जिका नाम की नगरी के बाहर भूतगृह नाम का चैत्य था / उस चैत्य में श्रीगुप्त नाम के आचार्य ठहरे हुए थे। नगरी के राजा का नाम था बलश्री / श्रीगुप्ताचार्य का रोहगुप्त नाम का एक शिष्य था / वह किसी दूसरे गांव में रहता था। वह एक बार