________________ श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह 365 अभाव रूप हो जाय। इस तरह यह दृष्टान्त जैन सिद्धान्त में अनभिमत होने से प्रसिद्ध है। अगर उपरोक्त हेतु को ठीक मान लिया जाय तब भी उससे सभी वस्तुओं की नित्यता सिद्ध नहीं होती। जिन आकाश काल, दिशा आदि पदार्थों का अन्त में भी नाश नहीं देखा जाता वे क्षणिक सिद्ध न होंगे / उनको नित्य मान लेने पर सभी वस्तुओं को क्षणिक बताने वाला मत खण्डित हो जायगा। ___ उपसंहार- पर्यायार्थिक नय का मत है कि सभी वस्तुएं उत्पाद विनाश स्वभाव वाली हैं / द्रव्यार्थिक नय से तो सभी वस्तुएं नित्य हैं / ऐसा होने पर भी एक ही पर्यायार्थिक नय का मत मानकर चलना मिथ्यात्व है / द्वीप, समुद्र और त्रिभुवन की सभी वस्तुएं नित्यानित्य हैं। इन्हें एकान्त मानना मिथ्यात्व है। यही सर्वज्ञ भगवान् का मत है / मुख दुःख बन्ध मोक्ष सभी बातें दोनों नयों को मानने पर ही ठीक हो सकती हैं। किसी एक को छोड़ देने पर सारे व्यवहार का लोप हो जाता है। सिर्फ पर्यायार्थिकनय कामत मान लेने पर संसार में सख दःखादि की व्यवस्था नहीं बन सकेगी। क्योंकि जीव तो उत्पन्न होते ही नष्ट हो जायगा, जैसे मृत / केवल द्रव्यार्थिक नय मानने से भी सुख दुःखादि की व्यवस्था नहीं हो सकती, क्योंकि वस्तु के एकान्त नित्य होने से उसका स्वरूप आकाश की तरह अपरिणामी होगा। इस तरह द्रव्य और पर्याय दोनों का पक्ष स्वीकार करना चाहिए। आचार्य ने अश्वमित्र को बहुत समझाया और कहा कि अगर जैनमत मानना है तो दोनों ही नयों को लेकर चलना चाहिए। बौद्धों की तरह क्षणिक मानने से संसार की कोई भी व्यवस्था नहीं हो सकती।