________________ श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह 361 शंका- यद्यपि प्रत्येक समय में नए नए नारक जीव उत्पन होते रहते हैं।कोई भी जीव दोक्षणों तक स्थिर नहीं रहता। फिर भी समान तण होने से उन की सन्तानपरम्परा एक सरीखी चलती रहती है ।जीवों की स्थिरता न होने पर भी उसो सन्तान को लेकर प्रथम द्वितीयादि क्षणों का व्यवहार होता है / उत्तर-सर्वथा नाशमान लेने पर सन्तानपरम्परा नहीं बन सकती। किसी की किसी से समानता भी नहीं हो सकती / निरन्वयनाश (सर्वथा नाश) होने पर तणों का व्यवहार हो ही नहीं सकता। इसलिए सन्तानपरम्परा की कल्पना भी निराधार है। दूसरी बात यह है कि सन्तान उन बदलने वाले क्षणिक पदार्थों से भिन्न है या अभिन्न ?यदि अभिन्न है तो वह पदार्थ खरूप ही हो गई। उस की कोई अलग सत्ता न रहेगी / ऐसी दशा में उस का मानना हीव्यर्थ है ।यदि सन्तान भिन्न है तो वह नित्य है या अनित्य ? यदि नित्य है तो सब वस्तुओं को क्षणिक मानने वाला तुम्हारा मत दूषित हो गया। यदि अनित्य है तो सन्तान भी अनित्य होने से प्रथम द्वितीयादि क्षणों के व्यवहार का कारण नहीं बन सकती। पूर्वतण का उत्तरक्षण में यदि किसी रूप से अनुगमन (अनुसरण) होता हो तभी उन दोनों की समानता हो सकती है। पूर्वक्षण का सम्पूर्ण रूपसे निरन्वयनाश मान लेने पर यह समता नहीं हो सकती / सर्वथा नाश होने पर भी यदि समानता मानते हो तो आकाशकुसुम के साथ भी समानता हो सकेगी, क्योंकि सर्वथा नष्ट पूर्वक्षण आकाशकुसुम के समान है। निरन्वयनाश (सर्वथा नाश) हो जाने पर पूर्वक्षण और उत्तरक्षण परस्पर ऐसे भिन्न हो जाते हैं जैसे घट और पट / यदि सर्वथा भिन्न पूर्वक्षण के नाश होजाने पर उस से सर्वथा