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श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह
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नहीं है और 'किसी समय नहीं रहेगा, यह बात भी नहीं है । हे जमाली ! लोक अशाश्वत भी है क्योंकि उत्सर्पिणी के बाद
सर्पिणी और अवसर्पिणी के बाद उत्सर्पिणी, इस प्रकार काल बदलता रहता है। जीव शाश्वत है क्योंकि पहले था, अव है और भविष्यत्काल में भी रहेगा। जीव अशाश्वत भी है क्योंकि नैरयिक तिर्यञ्च होता है, तिर्यञ्च हो कर मनुष्य होता है और मनुष्य हो कर देव होता है।
जमाली अनगार ने कदाग्रहवश भगवान् की बात न मानी । वह वहाँ से निकल गया । असद्भावना और मिथ्यात्व के अभिनिवेश के कारण झूठी प्ररूपणा द्वारा स्वयं तथा दूसरों को भ्रान्त करता हुआ विचरने लगा। बहुत दिनों तक श्रमण पर्याय पालने के बाद अर्ध मास की संलेखना करके अपने पापों की आलोचना और प्रतिक्रमण किये बिना मर कर लान्तक देवलोक
रह सागर की स्थिति वाले किल्विषिक देवों में उत्पन्न हुआ । जमाली नगर आचार्य और उपाध्याय का प्रत्यनीक था । आचार्य और उपाध्याय का अवर्णवाद करने वाला था। बिना आलोचना किए काल करने से वह किल्विषी देव हुआ । देवलोक से चवकर चार पाँच तिर्यञ्च, मनुष्य और देव के भव करने के बाद वह सिद्ध होगा । ( भगवती शतक ६ उद्देशा ३३ ) सुदर्शना जमाली के सिद्धान्त को मानने लगी। वह श्रावस्ती नगरी में ढंक नामक कुम्भकार के घर ठहरी हुई थी । उसे भी धीरे धीरे अपने मत में लाने की कोशिश करने लगी। ढंक ने भी सुदर्शना को गलत मार्ग पर चलते देख कर समझाने का निश्चय किया। एक दिन सुदर्शना स्वाध्याय कर रही थी। ढंक पास ही पड़े हुए मिट्टी के बर्तनों को उलट पलट कर रहा था । उसी समय आग का एक अंगारा सुदर्शना की ओर फेंक दिया। उस की