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श्री सेठिया जैन ग्रन्थमाला
( ५ ) संलाप - आपस में बातचीत करना । (६) प्रलाप - निरर्थक या अण्ड बण्ड भाषण करना । (७) विप्रलाप - तरह तरह से निष्प्रयोजन भाषण करना । ( ठाणांग सूत्र ५८४ )
५५५ - विरुद्धोपलब्धि हेतु के सात भेद
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किसी वस्तु से विरुद्ध होने के कारण जो हेतु उसके अभाव को सिद्ध करता है उसे विरुद्धोपलब्धि कहते हैं । ये सात हैं( १ ) स्वभाव विरुद्धोपलब्धि - जिस वस्तु का प्रतिषेध करना हो उसके स्वभाव या स्वरूप के साथ ही अगर हेतु का विरोध हो अर्थात् हेतु और उसका स्वभाव दोनों एक दूसरे के अस्तित्व न रह सकते हों उसको स्वभावविरुद्धोपलब्धि कहते हैं। जैसे -- कहीं पर सर्वथा एकान्त नहीं है, क्योंकि अनेकान्त मालूम पड़ता है । यहाँ अनेकान्त का मालूम पड़ना एकान्त के स्वभाव एकान्तता का विरोधी है । एकान्तता होने पर अनेकान्त की उपलब्धि नहीं हो सकती ।
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(२) विरुद्धव्याप्योपलब्धि-- हेतु यदि प्रतिषेध्य से विरुद्ध किसी वस्तु का व्याप्य हो । व्याप्य के रहने पर व्यापक अवश्य रहता है। जब हेतु विरुद्ध का व्याप्य है तो विरोधी भी अवश्य रहेगा। उसके रहने पर तद्विरोधी वस्तु का अभाव सिद्ध किया जा सकता है। जैसे- इस पुरुष का तत्त्वों में निश्चय नहीं है, क्योंकि सन्देह है । यहाँ सन्देह का होना निश्चय के न होने का व्याप्य है, इसलिए सन्देह के होने पर निश्चय का अभाव अवश्य रहेगा। निश्चय का अभाव और निश्चय दोनों विरोधी हैं । इसलिए निश्वयाभाव रहने पर निश्चय नहीं रह सकता ।
( ३ ) विरुद्धकार्योपलब्धि - विरोधी वस्तु के कार्य की सत्ता से जहाँ किसी चीज का प्रतिषेध किया जाय । कार्य के रहने