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श्री सेठिया जैन ग्रन्थमाला
(E) मुललित-आलाप के कारण जिसकी लय बहुत कोमल बन गई हो उसे सुललित कहते हैं। संगीत में उपरोक्त गुणों का होना आवश्यक है। इन गुणों के बिना संगीत केवल विडम्बना है। इनके सिवाय और भी संगीत के बहुत से गुण हैं। (१) उरोविशुद्ध- जो स्वर वक्षस्थल में विशुद्ध हो उसे उरोविशुद्ध कहते हैं। (२) कण्ठविशुद्ध- जो स्वर गले में फटने न पावे और स्पष्ट तथा कोमल रहे उसे कण्ठविशुद्ध कहते हैं। (३) शिरोविशुद्ध-मूर्धा को प्राप्त होकर भी जो स्वर नासिका से मिश्रित नहीं होता उसे शिरोविशुद्ध कहते हैं। छाती कण्ठ और मूर्धा में श्लेष्म या चिकनाहट के कारण स्वर स्पष्ट निकलता है और बीच में नहीं टूटता। इसी को उरोविशुद्ध, कण्ठविशुद्ध और शिरोविशुद्ध कहते हैं।(४) मृदुक- जो राग मृदु अर्थात् कोमल स्वर से गाया जाता है उसे मृदुक कहते हैं । (५) रिङ्गित-जहां पालाप के कारण स्वर खेल सा कर रहा हो उसे रिङ्गित कहते हैं । (६) पदबद्ध-गाये जाने वाले पदों की जहाँ विशिष्ट रचना हो उसे पदबद्ध कहते हैं। (७) समताल प्रत्युत्तेप- जहां नर्तकी का पादनिक्षेप और ताल वगैरह सब एक दूसरे से मिलते हों उन्हें समताल प्रत्युत्क्षेप कहते हैं। ___ सप्त स्वर सीभर- जहां सातों स्वर अक्षर वगैरह से मिलान खाते हों उसे सप्त स्वर सीभर कहते हैं। वे अक्षरादि सात हैं। (१)अक्षरसम-जहां हस्व की जगह ह्रस्व, दीघे की जगह दीर्घ,प्लुत के स्थान पर प्लुत और सानुनासिक की जगह सानुनासिक अक्षर बोला जाय उसे अक्षरसम कहते हैं। (२) पदसम- जहां पदविन्यास राग के अनुकूल हो। (३) तालसम- जहाँ हाथ पैर
आदि का हिलाना ताल के अनुकूल हो। (४) लयसम-- सींग, लकड़ी वगैरह किसी वस्तु के द्वारा बने हुए अंगुली के परिधान द्वारा ताड़ित होने पर वीणा से लय उत्पन्न होती है । उस लय