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श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह
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(५) पराघात-गड्ढे में गिरना वगैरह बाह्य आघात पाकर । (६) स्पर्श- साँप वगैरह के काट लेने पर अथवा ऐसी वस्तु का स्पर्श होने पर जिसके छूने से शरीर में जहर फैल जाय। (७) आणपाण- सांस की गति बन्द हो जाने पर। इन सात कारणों से व्यवहारनय से अकालमृत्यु होती है।
(ठाणांग सूत्र ५६१) ५३२.- विकथा सात
विकथा की व्याख्या और पहिले के चार भेद पहिले भाग के बोल नं० १४८ में दे दिए गये हैं। बाकी तीन विकथा ये हैं। (१) मृदुकारुणिकी-पुत्रादि के वियोग से दुखी माता वगैरह के करुण क्रन्दन से भरी हुई कथा को मृदुकारुणिकी कहते हैं। (२) दर्शनभेदिनी- ऐसी कथा करना जिस से दर्शन अर्थात् सम्यक्त्व में दोष लगे या उसका भंग हो । जैसे ज्ञानादि की अधिकता के कारण कुतीर्थी की प्रशंसा करना । ऐसी कथा मुनकर श्रोताओं की श्रद्धा बदल सकती है। (३) चारित्रभेदिनी- चारित्र की तरफ उपेक्षा या उसकी निन्दा करने वाली कथा । जैसे- आज कल साधु महाव्रतों का पालन कर ही नहीं सकते क्योंकि सभी साधुओं में प्रमाद बढ़ गया है, दोष बहुत लगते है, अतिचारों को शुद्ध करने वाला कोई प्राचार्य नहीं है, साधु भी अतिचारों की शुद्धि नहीं करते, इसलिए वर्तमान तीर्थ ज्ञान और दर्शन पर ही अवलम्बित है। इन्हीं दो की आराधना में प्रयत्न करना चाहिए । ऐसी बातों से शुद्ध चारित्र वाले साधु भी शिथिल हो जाते हैं। जो चारित्र की तरफ अभी झुके हैं उन का तो कहना ही क्या ? वे तो बहुत शीघ्र शिथिल हो जाते हैं।
(ठाणांग सूत्र ५६६)