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श्री सेठिया जैन मन्प्रथमला
चार वर्ष दूध दही वगैरह विगय छोड़ कर तप करे। दो वर्ष तक एकान्तर से आयम्बिल करे । छ: महीने तक तप करके मर्यादित आहार वाला आयम्बिल करे । दूसरे छह मास बेला तेला वगैरह कठिन तप करे। फिर एक वर्ष तक कोटी सहित तप करे । पहिले लिये हुए पच्चक्रखान के पूरा हुए बिना ही दूसरा पच्चक्खान आरम्भ कर देना कोटी सहित तप है। इस प्रकार बारह वर्ष की संलेखना के बाद भक्तपरिज्ञा आदि करे या पर्वत की गुफा में जाकर पादोपगमन करे ।
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दूसरे प्रकार का अनुष्ठान करने वाला साधु जिनकल्प . वगैरह अंगीकार करता है । उस में पहिले पहल रात्रि के मध्य में वह यह विचारता है- विशुद्ध चारित्रानुष्ठान के द्वारा मैंने आत्महित किया है। शिष्य आदि का उपकार करके परहित भी किया है । गच्छ को सम्भालने की योग्यता रखने वाले शिष्य भी तैयार हो गये हैं । अब मुझे विशेष आत्महित करना चाहिए | यह सोचकर अगर स्वयं ज्ञान हो तो अपनी बची हुई कितनी है, इस पर विचार करे। अगर स्वयं ज्ञान न हो तो दूसरे आचार्य को पूछ कर निर्णय करे । इस निर्णय के बाद अगर अपनी आयुष्य कम मालूम पड़े तो भक्तपरिज्ञा आदि में से किसी एक मरण को स्वीकार करे। अगर आयुष्य कुछ अधिक मालूम पड़े और जंघाओं में बल क्षीण हो गया हो तो वृद्धवास (स्थिरवास) स्वीकार करले। अगर शक्ति ठीक हो तो जिनकल्प आदि में से कोई कल्प स्वीकार करे। अगर जिनकल्प स्वीकार करना हो तो पांच तुलनाओं से आत्मा को तोले अर्थात् जाँचे कि यह उसके योग्य है या नहीं। तप, सत्त्व, सूत्र, एकत्व, और बल ये पांच तुलनाएं हैं । जिनकल्प अङ्गीकार करने वाला प्रायः आचार्य, उपाध्याय, प्रवर्तक, स्थविर, गणावच्छेदक में से कोई