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श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह
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४९९- प्रशस्तमनविनय के सात भेद
मन को सदोष क्रियावाले, कर्कश, कटु, निष्ठुर, परुष, पाप, कर्मों का बन्ध करने वाले, छेदकारी, भेदकारी, दूसरे को कष्ट पहुँचाने वाले, उपद्रव खड़ा करने वाले और प्राणियों का घात करने वाले व्यापार से बचाए रखना प्रशस्तमनविनय है। अर्थात् मन में ऐसे व्यापारों को न सोचना तथा इनके विपरीत शुभ बातों को सोचना प्रशस्तमनविनय है । इसके सात भेद हैं(१) अपावए-- पाप रहित मन का व्यापार । (२) असावज्जे- क्रोधादि दोषरहित मन की प्रवृत्ति । ( ३ ) अकिरिए- कायिकी आदि क्रियाओं में आसक्ति रहित
मन की प्रवृत्ति। ( ४ ) निरुवक्केसे- शोकादि उपक्लेश रहित मन का व्यापार। (५) अणण्हवकरे-- आश्रवरहित । (६) अच्छविकरे-अपने तथा दूसरे को पीड़ित न करने वाला। (७) अभूयाभिसंकणे - जीवों को भय न उत्पन्न करने वाला
मन का व्यापार।
(भगवती शतक २५ उद्देशा ७) (ठाणांय सूत्र ५८५) (उववाई सूत्र २०) ५००- अप्रशस्तमनविनय के सात भेद
ऊपर लिखे हुए सदोष क्रियावाले आदि अशुभ व्यापारों में मन को लगाना अप्रशस्तमनविनय है । इसके सात भेद हैं(१) पावए- पाप वाले व्यापार में मन को लगाना। (२) सावज्जे-दोष वाले व्यापार में मन को लगाना। (३) सकिरिए- कायिकी आदि क्रियाओं में आसक्तिसहित
मन का व्यापार। ( ४ ) सज्वक्केसे- शोकादि उपक्लेशसहित मन का व्यापार ।