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श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह
२२५ स्वभाववाद के सिवाय इन में आकस्मिकवाद, अहेतुवाद, अभूतिवाद, स्वतःउत्पादवाद, अनुपाख्योत्पादवाद, यदृच्छावाद आदि भी प्रचलित हैं।
बौद्ध प्रतीत्यसमुत्पाद को मानते हैं। अर्थात् कार्य न तो उत्पत्ति से पहले रहता है और न बाद में । वस्तु का क्षणभर रहना ही उत्पाद है।
जैनदर्शन सदसत्कार्यवाद को मानता है। अर्थात् उत्पत्ति से पहले कार्य कारण रूप से सत् और कार्य रूप से असत् रहता है।
. प्रास्मा चार्वाकदर्शन में आत्मा अनेक तथा शरीर रूप है। बौद्धदर्शन में आत्मा मध्यम परिमाण, अनेक तथा ज्ञानपरम्परा रूप है। जैनदर्शन में आत्मा शरीर परिमाण, अनेक तथा ज्ञान, दर्शन, सुख, वीर्य आदि गुणों वाला है।
ख्याति ___ चार्वाकदर्शन में ख्याति विषयक कोई मान्यता नहीं मिलती। बौद्ध आत्मख्याति को मानते हैं, अर्थात् रस्सी में 'यह साँप' । इस भ्रम में सांप केवल ज्ञान स्वरूप आन्तरिक पदार्थ है। उस में बाह्यसत्ता नहीं है। वही सांप दोष के कारण बाह्य रूप से मालूम पड़ने लगता है। इस प्रकार आत्मा अर्थात् ज्ञानरूप आन्तरिक पदार्थ का बाह्यरूप से प्रतीत होना आत्मख्याति है। जैनदर्शन में सदसत्ख्याति मानी जाती है। अर्थात रस्सी में मालूम पड़ने वाला सांप स्वरूपतः सत् है और रस्सी के रूप में असत् है । उसी की प्रतीति होती है। असत् गगनकुसुम की तरह अभावरूप होने से मालूम नहीं पड़ सकता
और रस्सी रूप में भी सांप को सत् मानने से वह ज्ञान भ्रमात्मक नहीं माना जा सकता इसलिये सदसत्रख्याति को मानना चाहिए।