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श्री जैन सिद्धान्त पोल संग्रह स्वरूप है, न अनिर्वचनीय है। इन चारों कोटियों से विनिर्मुक्त शून्य है। माध्यमिक का अर्थ है मध्यम मार्ग को मानने वाला अर्थात् जो भाव और अभाव दोनों के बीच में रहे। जैन दर्शन का मुख्य सिद्धान्त स्याद्वाद है । स्याद्वाद और मध्यमवाद में यही फर्क है कि स्यावाद में भिन्न भिन्न अपेक्षाओं से एकान्त दृष्टियों का समन्वय किया जाता है, उनका निषेध नहीं किया जाता। मध्यमवाद दोनों अन्तों का निषेध करता है।
जगत् चार्वाक संसार को पृथ्वी, जल, अग्नि और वायु इन चार भूतों से बना हुआ मानते हैं । वैभाषिक और सौत्रान्तिक जगत को क्षणिक तथा अनादिप्रवाह रूप मानते हैं। योगाचार ज्ञान के सिवाय मालूम पड़ने वाले सभी पदार्थों को मिथ्या मानते हैं। माध्यमिक संसार को शून्यरूप मानते हैं। जैन संसार को वास्तविक अनादि और अनेक धर्मात्मक मानते हैं ।
जगत्कारण चार्वाक मत से जगत् का कारण चार भूत हैं। बौद्ध संसार को प्रवाह रूप से अनादि मानते हैं। उनके मत से भिन्न भिन्न वस्तुओं के अलग अलग कारण हैं। जैन भी संसार को प्रवाह रूप से अनादि मानते हैं, किन्तु सारी वस्तुएँ छः द्रव्यों से बनी हुई हैं।
चार्वाक, जैन या बौद्ध कोई भी आत्मा से अतिरिक्त ईश्वर को नहीं मानते । जैन और बौद्धदर्शन में पूर्ण विकसित आत्मा ही ईश्वर या परमात्मा माना गया है, किन्तु वह जगत्कर्ता नहीं है।
चार्वाक जीव को देहरूप, इन्द्रियरूपयामनरूप मानते हैं। बौद्धों के मत में जीव अनेक, क्षणिक और मध्यम परिमाण वाले हैं।