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श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह
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वन के समान सुखदायी है। आत्मा ही सुख दुःखों का कर्ता तथा भोक्ता है । आत्मा ही सुमार्ग पर चले तो सब से बड़ा मित्र है और कुमार्ग पर चले तो आत्मा ही सब से बड़ा शत्रु है! जीव अपने ही पापकर्मों द्वारा नरक गति जैसे भयङ्कर दुःख उठाता है और अपने ही किए हुए सत्कर्मों द्वारा स्वर्ग आदि दिव्य सुख भोगता है
इस प्रकार जैन दर्शन जीव को अपने सुख दुःखों के लिए स्वयं उत्तरदायी बता कर परवशता को दूर कर कर्मण्यता का पाठ पढाता है । यह जैन दर्शन की तीसरी विशेषता है
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साम्यवाद
जैन दर्शन की चौथी विशेषता साम्यवाद है। मोक्ष या आत्मविकास का सम्बन्ध आत्मा से है। आत्मा जाति पाँति के बन्धनों से परे है। इसलिए प्रत्येक व्यक्ति धर्म सुनने और आत्मविकास करने का अधिकारी है। चाहे वह ब्राह्मण हो या चाण्डाल हो आत्मविकास के मार्ग पर चलने का दोनों को समान अधिकार है | कुलविशेष में पैदा होने मात्र से कोई धर्म का अधिकारी या अधिकारी नहीं बनता ।
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इसी प्रकार मोक्ष का मार्ग किसी वेष, सम्प्रदाय या लिङ्ग से सम्बन्ध नहीं रखता । जो व्यक्ति राग और द्वेष पर विजय प्राप्त करता है, कषायों को मन्द करता है, कर्मों को खपा डालता है वह किसी वेष में हो, स्त्री अथवा पुरुष किसी भी लिङ्ग का हो मोक्ष प्राप्त कर सकता है। इसी लिए जैन दर्शन में पन्द्रह प्रकार के सिद्ध बताए गए हैं। यह बात जैन दर्शन की विशालता और गुणपूजकता का परिचय देती है ।