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श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह
बन्ध है । ग्रहण किए हुए कर्मपुद्गलों का अलग अलग स्वभाव में परिणत होते समय निश्चित परिमाण में विभक्त हो जाना प्रदेशबन्ध है । बन्ध के इन चार भेदों में पहला और चौथा योग पर आश्रित हैं। दूसरा और तीसरा कषाय पर । आठ कर्मों का स्वरूप विस्तृत रूप से आठवें बोल में दिया जायगा ।
आस्रव और संवर ऊपर बताया जा चुका है कि जीव के साथ कर्मों का सम्बन्ध मन, वचन और काया की प्रवृत्ति के कारण होता है तथा कषाय की तरतमता के अनुसार उन बँधे हुए कर्मों की कालमर्यादा तथा फलदान की तीव्रता या मन्दता निश्चित होती है। योगों में हलचल होते ही कर्मपुद्गलों में हलचल होती है वे जीव की ओर आने लगते हैं। कमों के इस आगमन को आश्रव कहते हैं । आगमन के बाद ही वन्ध होता है इसलिए पहले आश्रव होता है फिर बन्ध । शुभ योग से शुभ कमों का आश्रव होता है और अशुभ योग से अशुभ आश्रव । आश्रव के ४२ भेद हैं। आश्रव का निरोध करना अर्थात् कर्मों के आगमन को रोकना संवर है । आश्रव का जितना निरोध होता है संवर का उतना ही विकास होता है। आश्रवनिरोध जैसे जैसे अधिक होता जाता है वैसे ही जीव उत्तरोत्तर ऊँचे गुणस्थान में चढ़ता जाता है । आश्रवनिरोध तथा संवर की रक्षा के लिए तीन गुप्ति, पाँच समिति, दस यतिधर्म, बारह भावनाएँ, २२ परिषहों पर विजय और पाँच प्रकार का चारित्र बताया गया है । इन सब का विस्तृत स्वरूप और विवेचन उस उस संख्या वाले बोलसंग्रह में देखना चाहिए।