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श्री सेठिया जैन ग्रन्थमाला
बन्ध के भेद बन्ध के चार भेद हैं- (१) प्रकृतिबन्ध, (२) स्थितिवन्ध, (३) अनुभावबन्ध और (४) प्रदेशबन्ध ।
जीव के द्वारा गृहीत होने पर कर्मपुद्गल जिस समय कर्मरूप में परिणत होते हैं उस समय उनमें चार बातें होती हैं, ये ही बन्ध के चार भेद हैं । जैसे बकरी, गाय, भैंस आदि के द्वारा खाया गया घास दूध रूप में परिणत होने पर चार बातों वाला होता है- (१) प्रकृति ( स्वभाव ) अर्थात् मीठा, हल्का, भारी
आदि होना । (२) अपने स्वाभाविक गुणों में अमुक काल तक स्थिर रहने की योग्यता । (३) मधुरता आदि गुणों की तीव्रता
और मन्दता । (४) परिमाण । इसी प्रकार जीव के साथ सम्बन्धित होने से कर्मपुद्गलों में भी स्वभाव,, कालमर्यादा, फल की तरतमता और परिमाण ये चार बातें होती हैं।
जीव के साथ सम्बन्ध होने से पहले कर्मवर्गणा के सभी पुद्गल एक सरीखे होते हैं। ज्ञान का आवरण करने वाले, दर्शन का आवरण करने वाले, सुख दुःख देने वाले आदि अलग अलग नहीं होते । जीव के साथ सम्बन्ध होने के बाद वे आठ स्वभावों में परिणत हो जाते हैं। इन्हीं आठ स्वभावों के अनुसार कर्म आठमाने गए हैं । आठों के कुल मिला कर १४८ अवान्तर भेद हैं । इसी को प्रकृतिबन्ध कहते हैं । इन सब का विस्तृत वर्णन आठवें बोल संग्रह में दिया जायगा । कर्मों के तत् तत् स्वभाव में परिणत होने के साथ ही उनकी स्थिति अर्थात् कालमर्यादा का निश्चित होना स्थितिबन्ध है । स्वभाव के साथ ही तीव्र या मन्द फल देने वाली विशेषताओं का होना अनुभाव