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तस्कृति कि
श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह
निरर्थक कोई कार्य न करना अनर्थदण्डविरतिव्रत है।
. चार शिक्षाव्रत काल का अभियह लेकर अर्थात् अमुक समय तक अधर्म प्रवृत्ति को त्याग कर धर्म प्रवृत्ति में स्थिर होने का अभ्यास करना सामायिकत्रत है। हमेशा के लिए रखी हुई दिशाओं की मर्यादा में से भी समय समय पर इच्छानुसार प्रति दिन के लिए दिशाओं की मर्यादा वाँधना और उसके बाहर जाकर पाँच आश्रव सेवन का त्याग करना देशावकाशिकवत है। आठम, चौदस आदि तिथियों पर सावध कार्य छोड़ कर यथाशक्ति अशनादि का त्याग करके धर्मजागरणा करना पौषधोपवासवन है । न्याय से पैदा किए शुद्ध अशन, पान, वस्त्र आदि पदार्थों को भक्तिपूर्वक सुपात्र को देना अतिथिसंविभागवत है ।
कपाय का अन्त करने के लिए कपाय के कारणों को घटाना तथा कषाय कम करते जाना संलेखना है। संलेखनाबत जीवन के अन्त तक के लिए स्वीकार किया जाता है । इसलिए यह व्रत मारणांतिक संलेखना कहा जाता है। __ इन सब व्रतों को निर्दोष पालने के लिए यह जानना जरूरी है कि किस व्रत में कैसा दोष लगने की सम्भावना है। इन्हीं दोपों को जानने के लिए प्रत्येक व्रत के पाँच पाँच अतिचार हैं । कुल अतिचार ६६ हैं । बारह व्रतों के ६०, सम्यक्त्व के ५, संलेखना के ५, ज्ञान के १४ तथा १५ कर्मादान । इन सच का स्वरूप यथा स्थान देखना चाहिए।
बन्ध आत्मा अनन्त ज्ञान, अनन्त दर्शन, अनन्त वीर्य, और